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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
चूल्हे पे तन्हा बैठी धुआंती हुई सी माँ
रोटी के साथ खुद को पकाती हुई सी माँ।
गर्दो-ग़ुबार चिहरे पे पैरों में भी बिवाइ
मैले हुए लिबास में भाती हुई सी माँ।
फ़ुर्सत न एक पल को कि आराम कुछ मिले
मुंह ज़िन्दगी को जैसे चिढ़ाती हुई सी माँ।
गइया हो बकरियां हों कि बच्चे ख़ुदा क़सम
हर दिल का नाज़ो-नखरा उठाती हुई सी माँ।
खीजी हुई हमारी शरारत पे दौड़कर
हौले से एक धौल जमाती हुई सी माँ।
सूफ़ी के फ़लसफ़े की हो जैसे कोई मिसाल
उपवास रह के सबको खिलाती हुई सी माँ।
एहसास आंसुओं में कभी ढल नहीं सका
सैलाब कोई दिल में दबाती हुई सी माँ।
घर में कभी अंधेरा नहीं पांव रख सका
दीये-सा अपने दिल को जलाती हुई सी माँ।
</poem>
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|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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चूल्हे पे तन्हा बैठी धुआंती हुई सी माँ
रोटी के साथ खुद को पकाती हुई सी माँ।
गर्दो-ग़ुबार चिहरे पे पैरों में भी बिवाइ
मैले हुए लिबास में भाती हुई सी माँ।
फ़ुर्सत न एक पल को कि आराम कुछ मिले
मुंह ज़िन्दगी को जैसे चिढ़ाती हुई सी माँ।
गइया हो बकरियां हों कि बच्चे ख़ुदा क़सम
हर दिल का नाज़ो-नखरा उठाती हुई सी माँ।
खीजी हुई हमारी शरारत पे दौड़कर
हौले से एक धौल जमाती हुई सी माँ।
सूफ़ी के फ़लसफ़े की हो जैसे कोई मिसाल
उपवास रह के सबको खिलाती हुई सी माँ।
एहसास आंसुओं में कभी ढल नहीं सका
सैलाब कोई दिल में दबाती हुई सी माँ।
घर में कभी अंधेरा नहीं पांव रख सका
दीये-सा अपने दिल को जलाती हुई सी माँ।
</poem>