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काँच के बिखरे हुए टुकड़े सहेजो
गीत की फ़सलें नई इनसे उगेंगी। उगेंगी ।
जेब में बीरान घर की चाभियाँ ले
खाइयाँ मन और मौसम की भरेंगी ।
जो गढे गढ़े सूरज सुबह से शाम तक, क्योंएक अँजुरी धूप को वह नस्ल तरसे!
सोखकर पानी सभी बूढ़ी नदी का
व्योमवासी मेघ पर्वत पार बरसे
लौट आओ तुम कि फिर सीली हवाएँ
चोटियों पर बर्फ़ के फाहे धरेंगी ।
'''(रचनाकाल : 2010)
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