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रेगिस्तान की रात है
और आँधियाँ सेसी
बनते जाते हैं निशां
मिटते जाते हैं निशां
ना कोई हमसफ़र
रेत के सीने में दफ्न दफ़्न हैं
ख़्वाबों की नर्म साँसें
यह घुटी-घुटी सी नर्म साँसें ख़्वाबों की
थके-थके दो क़दमों का सहारा लिए
ढूँढ़ती फिरती हैं
सूखे हुए बयाबानों में
शायद कहीं कोई साहिल मिल जाए
इन भटकते क़दमों से
इन उखड़ती सांसों से
कोई तो कह दो !भला रेत के सीने में कहीं साहिल होते हैं ।हैं।
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