भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माटी / कुबेरनाथ राय

2,095 bytes added, 05:38, 18 सितम्बर 2019
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुबेरनाथ राय |अनुवादक= |संग्रह=कं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुबेरनाथ राय
|अनुवादक=
|संग्रह=कंथा-मणि / कुबेरनाथ राय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
माटी,
मेरी दीन दुखी माटी,
तुमको शतशत प्रणाम।
मेरे ये बोल
दब गये माटी में भीगकर
दिल जब बरस पड़ा था।
हमने जाना वे सड़ गये, बेकार हो गये
रही नहीं अब उनकी अर्थवत्ता।
और उसके बाद
अनेक उषा-संध्या
अनेक दिवस-रात
अनेक जागरण तन्द्रा की भाँवरे पड़ती गयीं
अनेक सूर्य-चन्द्रों की बलि होती रही
और होता रहा पुनर्जन्म
मैं बिलकुल भूल गया कि
मेरे थे कुछ प्यारे शब्द, प्रिय कथिकायें
क्योंकि वे भीगकर माटी में दब गये
उस दिन दिल जब बरस पड़ा था।

उन अगणित दिनों के बाद, मैंने देखा एक दिन
हरे-हरे नये-नये पात, वर्तमान की छाती फोड़कर
निकलते असंख्य सरौरुह शिला जात
उठता हुआ जीवन सगर्त-शक्तिमान श्वेत रक्ताभहरिताभ
जैसे एक श्रीहत हतभाग्य कवि के हृदय से स्वयं जात
नये-नये छन्द-श्लोक-गान
तब मैंने माटी को प्रणाम किया।

''[ कलकत्ता : कालेज स्क्वायर, 1958 ]''
</poem>