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Kavita Kosh से
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हींहीन, कल मादकता थी की भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन ?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ--
किस कुम्भकार का यह निश्चय ?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिनछीन,खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप, रंग
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर ?'
लपटें बोलीं,'चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.'
यह,लो, मीणा बाज़ार जगालगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक,मगर,गया मैं मोल बिना जब आया मानव सरस ह्रदयहृदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों होठों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गलों गालों में
जाना होगा--इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उलटी उल्टी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
८.
मैं देख चुका जा मसजिद मस्जिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रमकर्म, कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ?
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे मुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
समझा कुछ अपनी नादानी !
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपनाअपने-अपना अपने आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
पल में मृत पीने वाले के
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
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