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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=नवगीत/ प्रताप नारायण सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
सोचता जब तक,
सिहारूँ नेह-जल अंतह-कलश में
मेघ मुझको छल चुके थे
उल्लसित प्रस्तावना देखी, मधुर विस्तार देखा
अंततः निर्वात से भी रिक्त उपसंहार देखा
सोचता जब तक
उतारूँ प्रणय-गाथा पुस्तिका पर
पृष्ठ सारे गल चुके थे
गूँथ कर हिय-मृत्तिका को भावना-जल से, गढ़ा था
रंग उस पर इन्द्रधनु जैसा समर्पण का चढ़ा था
सोचता जब तक
निहारूँ प्रीति की प्रतिमूर्ति कोमल
देव द्युति के ढल चुके थे
स्वर लहरियाँ धड़कनों की उर-सदन में गूँजती थीं
कोयलें उल्लास की आठों प्रहर ही कूजती थीं
सोचता जब तक
सँवारुँ रूप अपने गीत का मैं
बोल सारे जल चुके थे
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=नवगीत/ प्रताप नारायण सिंह
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सोचता जब तक,
सिहारूँ नेह-जल अंतह-कलश में
मेघ मुझको छल चुके थे
उल्लसित प्रस्तावना देखी, मधुर विस्तार देखा
अंततः निर्वात से भी रिक्त उपसंहार देखा
सोचता जब तक
उतारूँ प्रणय-गाथा पुस्तिका पर
पृष्ठ सारे गल चुके थे
गूँथ कर हिय-मृत्तिका को भावना-जल से, गढ़ा था
रंग उस पर इन्द्रधनु जैसा समर्पण का चढ़ा था
सोचता जब तक
निहारूँ प्रीति की प्रतिमूर्ति कोमल
देव द्युति के ढल चुके थे
स्वर लहरियाँ धड़कनों की उर-सदन में गूँजती थीं
कोयलें उल्लास की आठों प्रहर ही कूजती थीं
सोचता जब तक
सँवारुँ रूप अपने गीत का मैं
बोल सारे जल चुके थे
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