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|रचनाकार=अनामिका
|संग्रह=अनुष्टुप / अनामिका
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<poem>
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी पृथ्वी। ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़ पहाड़। भूचाल बेलते हैं घर घर।
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।
रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर ,
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी -की -पूरी ही सामने कि लो, इसे बेलो, पकाओ ,
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
पकाती हैं शहद।
सारा शहर चुप है ,
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आखिरी आख़िरी चूल्हे की राख भी ,
और मैं
अपने ही वजूद की आंच आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती , खुद को ही गूंधती गूँधती हुई बार-बार
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
</poem>