भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
376 bytes removed,
11:23, 18 फ़रवरी 2020
{{KKCatGeet}}
<poem>
मैं कहीं भी रहूँमेरा तो अपराध यही है, तू कहीं भी रहे हर समय तुझको खुद में ही पाऊँगा मैं। चाहे होगी खुशी या कोई गम ही हो हर पलों में तुझे गुनगुनाऊँगा मैं।।मैंने तुमसे प्यार किया है।
तू नहीं होगी जब, होगी यादें तेरी कौन मिटाएगा तुम बिन अबचाहे होगी न पूरी ये ख़्वाहिश मेरी मरते दम तक तुम्हीं इस जीवन की तिमिर निशा को ही चाहूँगा मैं।,मैं कहीं भी रहूँ, तू कहीं भी रहे कौन मिटा सकता है तुम बिनहर समय तुझको खुद में ही पाऊँगा मैं।।प्रिय दर्शन की अमिट तृषा को।
होगी आँखें ये नम, होगा दिल में भी गम दोष तुम्हें दूँ या जग को दूँ -चाहे तू न कहे मुझको अपना सनम फिर भी तुझको कभी न भुलाऊँगा मैं। मैं कहीं भी रहूँ, तू कहीं भी रहे हर समय तुझको खुद में ही पाऊँगा मैं।।जीवन निस्सार किया है।
तू ही मंजिल मेरीभूलूँ कैसे वह आलिंगनऔर साथ जो देखे सपने, तू ही मेरी डगर तेरे सँग मैं जिया दो पलों को मगर दो पलों इस बेगानी दुनिया में ही जीवन बिताऊँगा मैं।बसमैं कहीं भी रहूँतुम मुझको लगते थे अपने। कली अधखिली रही प्रेम की-काँटों से अभिसार किया है। मेरी बस इतनी अभिलाषाहो मधुमास तुम्हारे आँगन, तू कहीं भी रहे हर समय तुझको खुद में अधर तुम्हारे हँसी बिखेरेंहास भरा हो सारा जीवन। मेरा क्या मैंने जो पाया-उसको ही पाऊँगा मैं।।स्वीकार किया है।
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader