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<poem>
मैंने तुमसे बार- बार
यह कहने की कोशिश की
कि मेरे चुनिंदा ख़्वाबों
का लिहाज़ रखना
उम्र के पककर गिरने से पहले
हो सके तो अपनी निगाहों की सूची में
उन्हें शुमार कर लेना ।
मैंने अपनी ये अर्ज़ी बहुत पहले
तुम्हारे वायदों की फाइल में लगा दी थी
तुमने मेरे ख़्वाबों को अपनी
आँखों में बंद करके कहा था
"कि आज से ये मेरे ख़्वाब"
तब से मैं तुम्हारी आँखों के खेत में
अपने ख़्वाबों की फसल
पकने का इंतजार करती रही
इधर धीरे-धीरे मैं घर की हवा में घुल रही थी
और उधर मेरी उम्र में वक़्त घुल रहा था।
मैं कभी-कभी तुम्हारी आँखों के
रोशनदान पर अपनी नज़र डाल देती
और अपने ख़्वाबों की फसल को
देखने की कोशिश करती
पर मैं पक रही थी फसल नहीं
एक दिन मैंने तुम्हें याद दिलाया
पर तुमने एक अजनबी की तरह मुझसे कहा
"अरे! कब की बात लेकर बैठ गई हो?
बचकानी बातें थी"।
मैं दुखी थी और आहत भी
"कैसे कहूँ इस आदमी से ?
कि मैं अभी भी बचकानी ही हूँ
इसलिए तेरी आँखों में आज भी
अपने अधूरे ख़्वाबों को खंगाल रही हूं
जैसे माँ की संदूकची में खंगाल लेते थे
किसी जादुई करतब को" ।
</poem>
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