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{{KKRachna
|रचनाकार=मरीना स्विताएवा
|अनुवादक=वरयाम सिंह
|संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / मरीना स्विताएवा
}}
हाँ और ना के बीच
वह घण्टाघर की ओर से हाथ हिलाता है
उखाड़ फेंकता है सब खूँटें और बंधन ..बन्धन ...
कि पुच्छलतारों का रास्ता होता है कवियों का रास्ता --—बहुत लम्बी कड़ी कारणत्व की --—यही है उसका सूत्र ! ऊपर उठाओ माथा --—
निराश होना होगा तुम्हें
कि कवियों के ग्रहण का
गड्ड-मड्ड कर देता है भार और गिनती,
कवि वह होता है जो पूछता है स्कूली डेस्क से
जो काँट काण्ट<ref>जर्मन दार्शनिक ऐमानुएल काण्ट (1724-1804)</ref> का भी खा डालता है दिमाग,
जो बास्तील <ref>पेरिस स्थित कारावास, जिसे पेरिस की क्रान्तिकारी जनता ने 1789 में ध्वस्त कर दिया था।</ref> के ताबूत में भी
लहरा रहा होता है हरे पेड़ की तरह,
जिसके हमेशा क्षीण पड़ जाते हैं पद्-चिन्हपद्चिन्ह,
वह ऐसी गाड़ी है जो हमेशा आती है लेट
इसलिए कि पुच्छलतारों का रास्ता
होता है कवियों का रास्ता जलता हुआ
न कि झुलसाता हुआ,
यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा
पंचांग या जंत्रियों जन्त्रियों के लिए बिल्कुल अज्ञात ! 8 अप्रैल 1923 {{KKMeaning}}
</poem>