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परिणीता (कविता) / गणेश पाण्डेय

No change in size, 11:01, 1 अप्रैल 2020
<poem>
यह तुम थी !
पके जिसकेकाले लंबे लम्बे बालअसमयहुएगोरे चिकने गालअकोमल
यह तुम थी !
 छपीजिसके माथे परअनचाही इबारतटूटा जिसकाकोई क़ीमती खिलौना एक रेत का महल थाजिसकाएक पल मेंपानी में थाकितनी हलचल थीकितनी पीड़ा थीभीतर एक आहत सिंहनीकितनी उदास थी
यह तुम थी !
 ढ़ल ढल गया थाचाँद चान्द जिसकाऔर चांद चान्द से भीदूरहो गयाप्यार जिसका
यह तुम थी !
 श्रीहीन हो गयाजिसका मुखखो गया थाजिसका सुख, यह तुम थी !यह तुम थी एक-एक दिनअपने से लड़ती-झगड़ती खुद से करती जिरहयह तुम थी ! औरत और मर्द दोनों का काम करतीऔर रह-रह कर किसी को याद करती
यह तुम थी !
कभी गुलमोहर का सुर्ख़ फूलयह तुम थीएक-एक दिनअपने से लड़ती-झगड़तीख़ुद से करती जिरहऔर कभी नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !
अलीनगर की भीड़ में अपनी बेटी के साथऔरत और मर्ददोनों का काम करतीऔर रह-रह करकिसी को याद करतीअकेली कुछ ख़रीदने निकली थी
यह तुम थी !
 
कभी
गुलमोहर का सुर्ख़ फूल
और कभी
नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !
 
अलीनगर की भीड़ में
अपनी बेटी के साथ
अकेली
कुछ ख़रीदने निकली थी
यह तुम थी !
 
यह मैं था
साथ नहीं थाआसपास थामैं भी अकेला थातुम भी अकेली थीमुझसे बेख़बरयह तुम थी !
बहुमूल्य
चमचमातीऔर भागती हुईकार के पैरों के नीचेएक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
औरतुम बेख़बर थीयह तुम थी ! जिसकी क़िताब किताब मेंलग गया था
वक़्त का दीमक
कुतर गए थे कुछ शब्दकुछ नामकुछ अनुभवएक छोटी-सीदुनिया अब नहीं थीजिसकी दुनिया मेंयह तुम थी !जो अपनी किताब में थी और नहीं थीजो अपने भीतर थी और नहीं थीघर में थी और नहीं थी
यह तुम थी !
 
जो अपनी क़िताब में
थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी
और नहीं थी
घर में थी
और नहीं थी
यह तुम थी !
 
बदल गई थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आँख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्मे का नंबरनम्बर और मकान का पता
यह तुम थी !
 जिसकी आलीशान इमारतढह चुकी थीमलबे में गुम ग़ुम हो चुकी थीजिसकी अँगूठीऔर हारछिप गया था किसी हार में
यह तुम थी !
जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुईझुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहलेकभी
इतनी कमज़ोर न थी
इतनी उदास न थी
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निषअहर्निश
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी
 जिसकी साँसों सांसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर काआधा हिस्सा जिसका थाऔर जिसका दर्दमेरे दर्द का पड़ोसी था जिसके पैर बँधे बन्धे थेमेरे पैरों सेजिसके बालकुछ ही कम सफेद सफ़ेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटेंकम नहीं थीं मेरे माथे सेजिससेमुझे उस तरह प्रेम न थाजैसा कोई-कोई प्रेमीऔर प्रेमिकाकिताबों में करते थे पर अप्रेम न थाकुछ था जरूरज़रूरपर शब्द न थेजो भी थाएक अनुभव था 
एक स्त्री थी
जोदिन-रात खटती थीसूर्य देवता से पहलेचलना शुरू करती थीपवन देवता से पहलेदौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर
 
बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थीमुस्तैदी से 
अख़बार से भी पहले
चाय की प्यालीरख जाती थीमेरे होठों के पास मीठे गन्ने से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शामसूखी लकड़ी जैसी जलतीऔर खाने की मेज मेज़ पर
सिर झुकाकर
डाँट खाने के लिएतैयार रहती
यह तुम थी !
 
बावर्ची
धोबी
दर्जीदर्ज़ीपेंटरपेण्टर
टीचर
खजांचीखजाँची
राजगीर
मेहतर
क्या नहीं थी तुम !
यह तुम थी !
 
क्या हुआ
जो इस जन्म मेंमेरी प्रेमिका नहीं थीक्या पतामेरे हज़ार जन्मों की प्रेयसीतुम्हारे अंतस्तल अन्तस्तल मेंछुपी बैठी हो
और तुम्हें ख़बर न हो
 यह कैसी उलझन थीमेरे भीतर कई युगों सेयह तुम थीअपने कोमेरे और पास लाती थीजब-जब मैं अपने कोतुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थीमेरे गुनाहों की अनदेखी
मेरे खेतों में
अपने गीतों के संगपोछीटा मार कररोपाई करती हुईमज़दूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हँसीहंसी-ठिठोली के बीचबड़े मन से मेरे खेतों मेंएक-एक खर-पतवारढूँढढूँढ़-ढूँढ ढूँढ़ करनिराई करती हुईयह तन्वंगी कौन थी ! मेरे जीवन के भट्ठे परपिछले तीस साल सेईंट पकाती हुईझाँवाँ जैसीयह स्त्री कौन थीयह तुम थी ! और यह मैं थाएक अभिशप्त मेघ !जिसके नीचेन कोई धरती थीन ऊपर कोई आकाशऔर जिसके भीतरपानी की जगहप्यास ही प्यास
और यह मैं था एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे न कोई धरती थी न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर पानी की जगह प्यास ही प्यास
कभी
मैं ढू़ंढ़ता ढू़ँढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !
 कभीकिसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोईउम्मीद बँधाईबन्धाईयह मैं था प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृतऔर विदीर्ण टुकड़ाअपनी विकलताऔर विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था! यह मेरे हज़ार गुनाह थेऔर तुममेरे गुनाहों की देवी थी !
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच मेंअँटने भर काउसके पंख पँख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था
 
एक छोटी-सी खिड़की थी
जहाँ मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड दृश्यखण्ड थायह तुम थी ! मेरी आँखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी !
 मेरे गुनाहों की देवी !
मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अँधेरे अन्धेरे में भासमान इस उजास का क्या करूँजो तुमसे हैइस उम्मीद का क्या करूँ आत्मा की आवाज़ आवाज का क्या करूँअतीत का क्या करूँअपने आज का क्या करूँ
तुम्हारा क्या करूँ
जोमेरे जीवन की सखी थीऔर सखी है 
जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जोमेरी आत्मा की चिरसंगिनी थीमेरा अंतिम अन्तिम ठौर है
यह तुम थी !
 
यह तुम हो !!
मेरी मीता
मेरी परिणीता ।
</poem>
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