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|नाम= धीरेन्द्र प्रताप सिंह
|उपनाम=धवल
|जन्म=18.11.1990
|जन्मस्थान=अहिलाद, जनपद- मऊ (उ. प्र.)
|मृत्यु=
|कृतियाँ=
|विविध=
सपने और बेचैनी
कुछ सपने बहुत बेचैन कर देते
मसलन
जब दिखाई देते
भूत-प्रेत, चुड़ैल या यमदूत
सांप, बिच्छू या शेर
भयावह जंगल, रात का घुप्प सन्नाटा
उफनती नदियां, दलदल में फंसते पांव
फन काढ़े काले नाग या पागल हाथी
गुर्राता हुआ शेर या डंक मारता बिच्छू
हाथ मे खंजर लिए हुए क़ातिल
ऐसे ही अनेक ख़ौफ़नाक मंजर
जब हमें दिखाई देते
तब हम भागने लगते
दौड़ते-दौड़ते हांफने लगते
जब-तब रोने, चीखने-चिल्लाने लगते
फ़िर सवाल इस बात का है कि
आज जब इस देश में
दिन के उजाले में ही
जंगल, पर्वत और खदान
नदियां, झरने और तालाब
मां, बहन और बेटियां
आदिवासी, अल्पसंख्यक और जनजातियां
निर्भीक क़लमकार, नौज़वान और अमनपसंद लोग
जूझ रहे हैं असमय मौत से
फ़िर भी
हमें क्यों नहीं लगता डर
बेचैनी क्यों नहीं होती
आंखों के सामने ही घटित हो रहे
तमाम अत्याचार
हमें विचलित क्यों नहीं करते
हम क्यों नहीं चीखते-चिल्लाते
इस लय में कि
डर हमेशा- हमेशा के लिए भाग जाए
बच्ची और मां
आठ साल की बच्ची
चालीस की मां
ठंड का मौसम
रजाई में दुबकी बच्ची
निहार रही थी
झाड़ू लगाती
बर्तन धोती
खाना बनाती
टिफिन पैक करती
पापा के कपड़े इस्त्री करती
उनके जूते पालिश करती
मां की हलचल
वो देख रही थी
इन सबके बीच मां खो गई थी
शून्य में या न जाने कहां
अचानक मां के हाथों
टूट जाता है एक कप
नौकरी वाले पापा जाग जाते
मां को देते हैं सैकड़ों गालियां
मां कुछ नहीं बोलती
आंसू बहाती
बच्ची को निहारती
तभी बच्ची पूछ लेती
मां!
क्या मुझे भी जीना होगा इसी तरह
सबकी चिंता, उस पर भी गालियां
बच्ची की आंखों से आसूं ढुलक आता है
लेकिन मां तो मां
बच्ची की पोछती है आंसू
फ़िर तुरंत तैयार होती
आख़िर उसे भी तो ऑफिस जाना था!
ऐसे भी बच्चे होते हैं
देखा मैंने एक लड़का
जो भोजनालय में रहता था
आँखे उसकी बड़ी-बड़ी
चेहरे पर थी मासूम अदा
उसको देखा, फिर औरों को देखा
जो उसके उमर के लड़के थे
कुछ कम्प्यूटर चलाते थे
कुछ एसी घर में रहते थे
कुछ दादी के गोदी में
कुछ मम्मी-पापा के दुलारे थे
उस लड़के की उमर थी बारह
बचपन उसका था छिन गया
रात को दो बजे था सोता
चार बजे फिर जग जाता था
होटल मालिक उसको देता गाली
चुपचाप सहन कर लेता था
भोजन पाता था बचा खुचा
या भूखे पेट सो जाता था
गौर वर्ण बदन थे उसके
कपड़े काले हो गए थे उसके
प्यार ना पाया बचपन में वो
मम्मी,पापा और दादी का
बचपन क्या होता है?
उससे पूछो!
जो अपने घर गांव में रहता है
बचपन मतलब वो क्या जाने?
जो भोजनालय में खटता है
ऐसे लड़के अधिकांश मिलेंगे
बचपन जिनके हैं छीन गए
हरदम सरकारें चिल्लाती
बालक होते देश के कर्णधार
ऐसे बालक क्या कर पाएँगे?
बचपन जिनके छिन जायेंगे
होटल में धोएंगे बरतन
मालिक की गाली खायेंगे
ऐसे लड़कों के संग क्या होगा?
दिल दिमाग दोनो मर जायेंगे!
जिनके अंदर मानवता है
वो तो जागें!
ऐसे लड़कों का बचपन लौटाएं
उनके अंदर भी है एक लालसा
कोई तो दे-दे हमें सहारा
हम भी कुछ कर जायेंगे
कलाम,नेहरू,आज़ाद,भगत कहलायेंगे!
पागल नहीं हूं मैं
ढलती शाम में
ढलते सूरज से लाल आकाश
उसी लालिमा से रंगा एक शहर
उस शहर की जनता और ज़िंदगी
उसी जनता में शामिल था
एक ऐसा आदमी
जिसे लोग बता रहे थे पागल
जबकि वह भी था एक आदमी
जो समझ रहा था
भ्रष्टतंत्र और उसकी चालाकियां
जो देख रहा था
आदमखोर विकास की सच्चाई
पूंजीपरस्त व्यवस्था की दबी भेड़िया चाल
इसीलिए
रोज़ शाम को भरे चौराहे
लाल तमतमाते चेहरे के साथ
भेड़ बनी जनता को आगाह करता
सावधान हो जाओ तुम सब भी
नहीं तो मार दिए जाओगे
एक-एक कर
कोई जरुरी नहीं की हत्या ही हो
हो सकता है तुमको
जिन्दा लाश बना दिया जाय
इसलिए संभल जाओ
और हां!
पागल नहीं हूं मैं
किसान
एक किसान
तपती दुपहरी में
खेतों को जोतता
कोड़ता
प्यासे,भूखे,रहकर भी
कभी-कभी
कुछ ज्यादा ही श्रम करता
लोगों की भूख मिटाता
बदले में क्या पाता?
कम पैदावार,श्रम अधिक
कमजोर शरीर
आख़िर ऐसा क्यों होता?
क्योंकि
समय पर नहरों में पानी नहीं
समय पर बिजली नहीं
गोदामों में खादें नहीं
उपज अनाज का दाम पूरा नहीं
और
जायज मांगों पर लाठी!
ईश्वर की ज़बान
सर्वधर्म संसद लगी हुई थी
धर्म पर बड़ी-बड़ी बातें हो रही थीं
धर्मगुरु बोलते-बोलते उत्तेजित हो जा रहे थे
अचानक एक आवाज गूंजी!
मैं ईश्वर हूँ!
आप सब यहां क्यों इक्कट्ठा हुए हैं?
सबने एक स्वर से बोला!
धर्म की रक्षा, आस्था और विस्तार
ईश्वर ने पूछा!
आप सबके धर्मग्रंथों में क्या लिखा है?
सब एक स्वर में बोले!
मानवीय मूल्यों की रक्षा
नैतिकता और सद्गुणों का पाठ
भूखे को भोजन और प्यासे को पानी
स्त्री को सम्मान, सुरक्षा और सत्कार
ईश्वर बोले!
परंतु यह हो क्या रहा है?
मृत्युलोक में!?
इबादत घरों में बलात्कार।
जाति और लिंग के नाम पर
दलितों और स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध
ख़बर है कि आप सब स्वयं
इन कृत्यों में शामिल हैं
प्रोत्साहित और संरक्षित करते
व्यभिचारियों और गुंडों को
मेरे नाम पर दंगे भड़काते
और देते हैं कुकर्मों को अंजाम
भगवन!
आपके ही नाम से तो चलता
राजनीति का कारोबार
बदले में मिलता
फल, फूल, मेवा और सेवा
कभी-कभी राजसुख और सत्ता
ईश्वर ऊंची आवाज में बोले
यदि यही सब है
मेरे नाम का प्रतिफ़ल
तो हे मानव
बन्द करो मेरी पूजा
आराधना और इबादत का काम
अब मैं भी हूँ असहाय और निरुपाय
सच कहूँ तो
मैं अब देवता नहीं
बस पत्थर ही हूँ
धर्म के कारोबार का
एक माध्यम ही हूँ
आस्था रखनी है तो रखो
अपनी मां और बहन में
इबादत करनी ही है तो करो
अपने माँ-बाप की
पूजा करनी ही है तो करो
अपने कर्म साधनों की
मन लगाना है तो लगाओ
उन किताबों में
जिसमें दर्ज है
अन्याय की आवाज़
रक्षा करनी ही है तो करो
मानवीय मूल्यों की
विश्वास करना है तो करो
परिश्रम, संघर्ष और न्याय में
बचाना है तो बचाओ
दरकते रिश्तों की बुनियाद
उन्हें अब अस्वीकार करो
जो उग आए हैं, मेरे नाम पर
धर्म के सौदागर और इबादतगाह
समय का सच अब है ही ऐसा
एक रोज़ की बात है
सड़क पर निकला रात को
देखा एक कड़वा सच
जो पच ना पाए ऐसा सच
उस वक्त रात के बजे थे बारह
विधानसभा चुनाव थे जोरों पर
वादे थे एक से एक बड़े
समता लाना था हर वादे में
देखा जब मैंने सड़कों पर
फुटपाथ पर सोए लोगों को
फुटपाथ था बिस्तर उनका
चद्दर उनका था बहुत बड़ा
उसको आसमान कह सकते
उस फुटपाथ पर सोए मानव
सभ्य जनों के नज़रों में थे दानव
उन मानव में कुछ रिक्शे वाले
कुछ विस्थापन के थे मारे
कुछ महंगाई तो कुछ
इस सभ्य समाज के थे मारे
सबको इस फटे हाल देखकर
पूछा अपने मन से एक सवाल
क्या यही सच है या यह झूठा राष्ट्रवाद
क्या यही नियति है या यह झूठा समाजवाद
फ़िर भी मेरा मन न माना
सोचा मन भी है यह झूठा
सहसा देखा बेबस एक लाचार
जो सोया था फुटपाथों पर
मिनट पर मिनट पर था खांसता
जीभ निकल आती थी बाहर
शायद वो एक रिक्शा वाला
जो दमा बीमारी से था पीड़ित
बदन पर उसके ना थे कपड़े
पेट-पीठ थे एक हुए
जाकर हमने उससे पूछा
क्यों पड़े हुए इस हाल में
रोते-रोते वह बोल पड़ा
कोई नहीं अब है मेरा
यह तो बस एक छोटी घटना
ऐसी विपदा हर जगह पड़ी
कहीं कहीं तो ऐसा भी है
विपदाओं ने मानव को तोड़ दिया
और, इस सभ्य समाज के मानव ने
ऐसे लोगों को छोड़ दिया
यह दशा देखकर अब है लगता
समय का सच अब है ही ऐसा!
सत्ता वालों
समता की बातें करने वालों
हर हाथ तरक्की देने वालों
विकास की बातें करने वालों
संविधान को पूजने वालों
धर्म ग्रंथ इसे कहने वालों
सत्ता को हथियाने वालों
राजनीति के गलियारों में
हिन्दू-मुस्लिम कब तक होगा
वंशवाद का वृक्ष बड़ा कर
दंगों की तुम आग जलाकर
कब तक रोटी सेंकोगे
मुरली, रामू, हरिया, किरनी
पूछ रहे हैं सिसक-सिसक कर
कब तक ऐसे हम झेलेंगे
ग़रीबी और बेकारी को
शोषण और लाचारी को
महंगाई, बेरोजगारी को
दंगे और लड़ाई को
अब तो कुछ तुम रहम करो
मानवता पर तरस करो
इस अभागी जनता को तुम
रोटी, कपड़ा, घर तो दो
नौजवान की रिरियाती आंखें
उनके हाथ कुछ काम तो दो
कोई जगह
यूं ही अचानक कोई जगह
हमसे अपरिचित क्यों हो जाती?
दुनिया में तो बहुत जगह है
फ़िर
हम किसी ख़ास जगह से ही क्यों जुड़ते!
किसी ख़ास का ही उत्साह या रोमांच
हमें क्यों गुदगुदाता है?
यह सच है
कोई जगह यूं ही नहीं जुड़ती
मन, आत्मा और शरीर से
वह जुड़ती है
उन लोगों, दोस्तों और परिचतों से
जहां जुड़ता है अपनापन
अपनी बोली,भाषा और भूगोल
ठीक उसी तरह
जैसे सुदूर यात्रा के बाद जुड़ती हैं
दो नदियां
जैसे घने जंगल में दिखती है
सूरज की किरणे
यह भी सच है
वो लोग उस तरह नहीं जुड़ते
जैसे जुड़ता है कोई ट्रैवल गाइड
कोई कर्मचारी या कोई अधिकारी
वो लोग इस तरह जुड़ते हैं
जैसे मन, आत्मा और शरीर
धीरे-धीरे-धीरे!
'भूख'
अन्न
प्रेम
वासना
धन-शासक-साम्राज्य
झूठी प्रशंसा और
झूठे सम्मान की भी होती
दरअसल
अन्न और प्रेम के अलावा
भूख के साथ जुड़े
अन्य प्रायोगिक शब्द
नष्ट कर देते हैं
मनुष्यता का मूल्य
समानता का अधिकार
हिस्सेदारी की वाजिब मांग
धरती का सौंदर्य
आकाश का वितान
और इतना ही नहीं
इस तरह की भूख
मिटा देती है ख़ुद को
धीरे-धीरे-धीरे!!
ध्यान रहे!
सुनो!
यदि विचारों को न मार पाओ
तो विचारकों को मार दो
मार दो उनको
जो देखे देश में बेरोजगारी
जो गरीबी से मांगे आज़ादी
जो आत्महत्याओं पर करे सवाल
जो शिक्षा की दुर्दशा पर मांगे जवाब
ध्यान रहे युद्ध से लौटना मत ज़िंदा
नहीं तुम भी मार दिए जाओगे
इसलिए कि
तुम्हारी पहचान उजागर हो चुकी होगी
फ़िर हम भी नहीं पहचानेंगे तुम्हें
आख़िर
तुम्हारा क्या भरोसा?
हो तो तुम भी बेरोजगार ही
किसानी से पलने वाले नौजवान ही!
लड़ाई धर्म की नहीं है!
हिंदू नेता का नारा
हम सबका दुश्मन मुस्लिम
मुस्लिम नेता बोला
हम सबका दुश्मन हिंदू
हिंदू पहले किसी मुस्लिम को मारे
उसके पहले
ब्राह्मण का दुश्मन ठाकुर
ठाकुर का यादव
यादव का दलित
दलित का महादलित
उसके बाद
ब्राह्मण का ब्राह्मण ही
ब्राह्मण का ब्राह्मण पड़ोसी ही
ब्राह्मण का ब्राह्मण परिवार ही
मुस्लिम पहले किसी हिंदू को मारे
उसके पहले
शिया का दुश्मन सुन्नी
खान का पठान
अंसारी का अहमद
इसी क्रम में
क्या हिंदू, क्या मुसलमान
क्या सिक्ख, क्या ईसाई?
सबकी धर्म से पहले
जातीय दुश्मनी चलती
समझने की बात यह है कि
जो अपना दुश्मन
ग़रीबी, बेकारी, अशिक्षा
जड़ता, आडंबर, मूर्खता
जल, जंगल, ज़मीन के दोहक
सरकारी अमला के लुटेरों
कार्पोरेट्स के छल-छद्म
आदि को नहीं मानता
पहली बात कि
वह इंसान नहीं
जो इंसान नहीं
वह न तो सच्चा हिंदू
न सच्चा मुसलमान
न सच्चा सिक्ख
न ही सच्चा ईसाई
ना ही कोई उसका धर्म
ना उसका कोई भगवान
जुड़ने का नियम
बदल रहा है
मनुष्यों के जुड़ने का नियम
तय सा दिखता है नियमों का क्रम
अपनी जाति
अपने क्षेत्र
अपने गांव
अपने परिवार
कोई न मिले तो
सवर्ण हो
सवर्ण न मिले तो
पिछड़ा हो
पिछड़ा न हो तो
दलित हो
दलित न हो तो
हिंदू तो हो ही
ठीक यही नियम
मुसलमान, ईसाई, सिक्ख
सभी पालन करते दिख रहे
मनुष्यों के जुड़ने की शर्त
यदि यही बनी रही
फ़िर कोई मनुष्य नहीं
सभी आदमखोर जातियां होंगी
सवाल
सवाल
पानी पर खींची लकीर नहीं
सवाल
हवा में हस्ताक्षर नहीं
सवाल
धरा का अदृश्य क्षितिज नहीं
सवाल
बिना आग का धुंआ नहीं
सवाल
जिंदा लोगों की दास्तान
सवाल
मुश्किलों के हल का जज़्बा
सवाल
सत्ता की क्रूरता पर हमला
सवाल
खुशनुमा दुनिया का राज़
सवालों को इस तरह समझने वाले
ढूंढ ही लेते हैं उत्तर
वह उत्तर
जो सवालों के बिना
हमेशा के लिए अनुत्तरित रह जाते
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|नाम= धीरेन्द्र प्रताप सिंह
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सपने और बेचैनी
कुछ सपने बहुत बेचैन कर देते
मसलन
जब दिखाई देते
भूत-प्रेत, चुड़ैल या यमदूत
सांप, बिच्छू या शेर
भयावह जंगल, रात का घुप्प सन्नाटा
उफनती नदियां, दलदल में फंसते पांव
फन काढ़े काले नाग या पागल हाथी
गुर्राता हुआ शेर या डंक मारता बिच्छू
हाथ मे खंजर लिए हुए क़ातिल
ऐसे ही अनेक ख़ौफ़नाक मंजर
जब हमें दिखाई देते
तब हम भागने लगते
दौड़ते-दौड़ते हांफने लगते
जब-तब रोने, चीखने-चिल्लाने लगते
फ़िर सवाल इस बात का है कि
आज जब इस देश में
दिन के उजाले में ही
जंगल, पर्वत और खदान
नदियां, झरने और तालाब
मां, बहन और बेटियां
आदिवासी, अल्पसंख्यक और जनजातियां
निर्भीक क़लमकार, नौज़वान और अमनपसंद लोग
जूझ रहे हैं असमय मौत से
फ़िर भी
हमें क्यों नहीं लगता डर
बेचैनी क्यों नहीं होती
आंखों के सामने ही घटित हो रहे
तमाम अत्याचार
हमें विचलित क्यों नहीं करते
हम क्यों नहीं चीखते-चिल्लाते
इस लय में कि
डर हमेशा- हमेशा के लिए भाग जाए
बच्ची और मां
आठ साल की बच्ची
चालीस की मां
ठंड का मौसम
रजाई में दुबकी बच्ची
निहार रही थी
झाड़ू लगाती
बर्तन धोती
खाना बनाती
टिफिन पैक करती
पापा के कपड़े इस्त्री करती
उनके जूते पालिश करती
मां की हलचल
वो देख रही थी
इन सबके बीच मां खो गई थी
शून्य में या न जाने कहां
अचानक मां के हाथों
टूट जाता है एक कप
नौकरी वाले पापा जाग जाते
मां को देते हैं सैकड़ों गालियां
मां कुछ नहीं बोलती
आंसू बहाती
बच्ची को निहारती
तभी बच्ची पूछ लेती
मां!
क्या मुझे भी जीना होगा इसी तरह
सबकी चिंता, उस पर भी गालियां
बच्ची की आंखों से आसूं ढुलक आता है
लेकिन मां तो मां
बच्ची की पोछती है आंसू
फ़िर तुरंत तैयार होती
आख़िर उसे भी तो ऑफिस जाना था!
ऐसे भी बच्चे होते हैं
देखा मैंने एक लड़का
जो भोजनालय में रहता था
आँखे उसकी बड़ी-बड़ी
चेहरे पर थी मासूम अदा
उसको देखा, फिर औरों को देखा
जो उसके उमर के लड़के थे
कुछ कम्प्यूटर चलाते थे
कुछ एसी घर में रहते थे
कुछ दादी के गोदी में
कुछ मम्मी-पापा के दुलारे थे
उस लड़के की उमर थी बारह
बचपन उसका था छिन गया
रात को दो बजे था सोता
चार बजे फिर जग जाता था
होटल मालिक उसको देता गाली
चुपचाप सहन कर लेता था
भोजन पाता था बचा खुचा
या भूखे पेट सो जाता था
गौर वर्ण बदन थे उसके
कपड़े काले हो गए थे उसके
प्यार ना पाया बचपन में वो
मम्मी,पापा और दादी का
बचपन क्या होता है?
उससे पूछो!
जो अपने घर गांव में रहता है
बचपन मतलब वो क्या जाने?
जो भोजनालय में खटता है
ऐसे लड़के अधिकांश मिलेंगे
बचपन जिनके हैं छीन गए
हरदम सरकारें चिल्लाती
बालक होते देश के कर्णधार
ऐसे बालक क्या कर पाएँगे?
बचपन जिनके छिन जायेंगे
होटल में धोएंगे बरतन
मालिक की गाली खायेंगे
ऐसे लड़कों के संग क्या होगा?
दिल दिमाग दोनो मर जायेंगे!
जिनके अंदर मानवता है
वो तो जागें!
ऐसे लड़कों का बचपन लौटाएं
उनके अंदर भी है एक लालसा
कोई तो दे-दे हमें सहारा
हम भी कुछ कर जायेंगे
कलाम,नेहरू,आज़ाद,भगत कहलायेंगे!
पागल नहीं हूं मैं
ढलती शाम में
ढलते सूरज से लाल आकाश
उसी लालिमा से रंगा एक शहर
उस शहर की जनता और ज़िंदगी
उसी जनता में शामिल था
एक ऐसा आदमी
जिसे लोग बता रहे थे पागल
जबकि वह भी था एक आदमी
जो समझ रहा था
भ्रष्टतंत्र और उसकी चालाकियां
जो देख रहा था
आदमखोर विकास की सच्चाई
पूंजीपरस्त व्यवस्था की दबी भेड़िया चाल
इसीलिए
रोज़ शाम को भरे चौराहे
लाल तमतमाते चेहरे के साथ
भेड़ बनी जनता को आगाह करता
सावधान हो जाओ तुम सब भी
नहीं तो मार दिए जाओगे
एक-एक कर
कोई जरुरी नहीं की हत्या ही हो
हो सकता है तुमको
जिन्दा लाश बना दिया जाय
इसलिए संभल जाओ
और हां!
पागल नहीं हूं मैं
किसान
एक किसान
तपती दुपहरी में
खेतों को जोतता
कोड़ता
प्यासे,भूखे,रहकर भी
कभी-कभी
कुछ ज्यादा ही श्रम करता
लोगों की भूख मिटाता
बदले में क्या पाता?
कम पैदावार,श्रम अधिक
कमजोर शरीर
आख़िर ऐसा क्यों होता?
क्योंकि
समय पर नहरों में पानी नहीं
समय पर बिजली नहीं
गोदामों में खादें नहीं
उपज अनाज का दाम पूरा नहीं
और
जायज मांगों पर लाठी!
ईश्वर की ज़बान
सर्वधर्म संसद लगी हुई थी
धर्म पर बड़ी-बड़ी बातें हो रही थीं
धर्मगुरु बोलते-बोलते उत्तेजित हो जा रहे थे
अचानक एक आवाज गूंजी!
मैं ईश्वर हूँ!
आप सब यहां क्यों इक्कट्ठा हुए हैं?
सबने एक स्वर से बोला!
धर्म की रक्षा, आस्था और विस्तार
ईश्वर ने पूछा!
आप सबके धर्मग्रंथों में क्या लिखा है?
सब एक स्वर में बोले!
मानवीय मूल्यों की रक्षा
नैतिकता और सद्गुणों का पाठ
भूखे को भोजन और प्यासे को पानी
स्त्री को सम्मान, सुरक्षा और सत्कार
ईश्वर बोले!
परंतु यह हो क्या रहा है?
मृत्युलोक में!?
इबादत घरों में बलात्कार।
जाति और लिंग के नाम पर
दलितों और स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध
ख़बर है कि आप सब स्वयं
इन कृत्यों में शामिल हैं
प्रोत्साहित और संरक्षित करते
व्यभिचारियों और गुंडों को
मेरे नाम पर दंगे भड़काते
और देते हैं कुकर्मों को अंजाम
भगवन!
आपके ही नाम से तो चलता
राजनीति का कारोबार
बदले में मिलता
फल, फूल, मेवा और सेवा
कभी-कभी राजसुख और सत्ता
ईश्वर ऊंची आवाज में बोले
यदि यही सब है
मेरे नाम का प्रतिफ़ल
तो हे मानव
बन्द करो मेरी पूजा
आराधना और इबादत का काम
अब मैं भी हूँ असहाय और निरुपाय
सच कहूँ तो
मैं अब देवता नहीं
बस पत्थर ही हूँ
धर्म के कारोबार का
एक माध्यम ही हूँ
आस्था रखनी है तो रखो
अपनी मां और बहन में
इबादत करनी ही है तो करो
अपने माँ-बाप की
पूजा करनी ही है तो करो
अपने कर्म साधनों की
मन लगाना है तो लगाओ
उन किताबों में
जिसमें दर्ज है
अन्याय की आवाज़
रक्षा करनी ही है तो करो
मानवीय मूल्यों की
विश्वास करना है तो करो
परिश्रम, संघर्ष और न्याय में
बचाना है तो बचाओ
दरकते रिश्तों की बुनियाद
उन्हें अब अस्वीकार करो
जो उग आए हैं, मेरे नाम पर
धर्म के सौदागर और इबादतगाह
समय का सच अब है ही ऐसा
एक रोज़ की बात है
सड़क पर निकला रात को
देखा एक कड़वा सच
जो पच ना पाए ऐसा सच
उस वक्त रात के बजे थे बारह
विधानसभा चुनाव थे जोरों पर
वादे थे एक से एक बड़े
समता लाना था हर वादे में
देखा जब मैंने सड़कों पर
फुटपाथ पर सोए लोगों को
फुटपाथ था बिस्तर उनका
चद्दर उनका था बहुत बड़ा
उसको आसमान कह सकते
उस फुटपाथ पर सोए मानव
सभ्य जनों के नज़रों में थे दानव
उन मानव में कुछ रिक्शे वाले
कुछ विस्थापन के थे मारे
कुछ महंगाई तो कुछ
इस सभ्य समाज के थे मारे
सबको इस फटे हाल देखकर
पूछा अपने मन से एक सवाल
क्या यही सच है या यह झूठा राष्ट्रवाद
क्या यही नियति है या यह झूठा समाजवाद
फ़िर भी मेरा मन न माना
सोचा मन भी है यह झूठा
सहसा देखा बेबस एक लाचार
जो सोया था फुटपाथों पर
मिनट पर मिनट पर था खांसता
जीभ निकल आती थी बाहर
शायद वो एक रिक्शा वाला
जो दमा बीमारी से था पीड़ित
बदन पर उसके ना थे कपड़े
पेट-पीठ थे एक हुए
जाकर हमने उससे पूछा
क्यों पड़े हुए इस हाल में
रोते-रोते वह बोल पड़ा
कोई नहीं अब है मेरा
यह तो बस एक छोटी घटना
ऐसी विपदा हर जगह पड़ी
कहीं कहीं तो ऐसा भी है
विपदाओं ने मानव को तोड़ दिया
और, इस सभ्य समाज के मानव ने
ऐसे लोगों को छोड़ दिया
यह दशा देखकर अब है लगता
समय का सच अब है ही ऐसा!
सत्ता वालों
समता की बातें करने वालों
हर हाथ तरक्की देने वालों
विकास की बातें करने वालों
संविधान को पूजने वालों
धर्म ग्रंथ इसे कहने वालों
सत्ता को हथियाने वालों
राजनीति के गलियारों में
हिन्दू-मुस्लिम कब तक होगा
वंशवाद का वृक्ष बड़ा कर
दंगों की तुम आग जलाकर
कब तक रोटी सेंकोगे
मुरली, रामू, हरिया, किरनी
पूछ रहे हैं सिसक-सिसक कर
कब तक ऐसे हम झेलेंगे
ग़रीबी और बेकारी को
शोषण और लाचारी को
महंगाई, बेरोजगारी को
दंगे और लड़ाई को
अब तो कुछ तुम रहम करो
मानवता पर तरस करो
इस अभागी जनता को तुम
रोटी, कपड़ा, घर तो दो
नौजवान की रिरियाती आंखें
उनके हाथ कुछ काम तो दो
कोई जगह
यूं ही अचानक कोई जगह
हमसे अपरिचित क्यों हो जाती?
दुनिया में तो बहुत जगह है
फ़िर
हम किसी ख़ास जगह से ही क्यों जुड़ते!
किसी ख़ास का ही उत्साह या रोमांच
हमें क्यों गुदगुदाता है?
यह सच है
कोई जगह यूं ही नहीं जुड़ती
मन, आत्मा और शरीर से
वह जुड़ती है
उन लोगों, दोस्तों और परिचतों से
जहां जुड़ता है अपनापन
अपनी बोली,भाषा और भूगोल
ठीक उसी तरह
जैसे सुदूर यात्रा के बाद जुड़ती हैं
दो नदियां
जैसे घने जंगल में दिखती है
सूरज की किरणे
यह भी सच है
वो लोग उस तरह नहीं जुड़ते
जैसे जुड़ता है कोई ट्रैवल गाइड
कोई कर्मचारी या कोई अधिकारी
वो लोग इस तरह जुड़ते हैं
जैसे मन, आत्मा और शरीर
धीरे-धीरे-धीरे!
'भूख'
अन्न
प्रेम
वासना
धन-शासक-साम्राज्य
झूठी प्रशंसा और
झूठे सम्मान की भी होती
दरअसल
अन्न और प्रेम के अलावा
भूख के साथ जुड़े
अन्य प्रायोगिक शब्द
नष्ट कर देते हैं
मनुष्यता का मूल्य
समानता का अधिकार
हिस्सेदारी की वाजिब मांग
धरती का सौंदर्य
आकाश का वितान
और इतना ही नहीं
इस तरह की भूख
मिटा देती है ख़ुद को
धीरे-धीरे-धीरे!!
ध्यान रहे!
सुनो!
यदि विचारों को न मार पाओ
तो विचारकों को मार दो
मार दो उनको
जो देखे देश में बेरोजगारी
जो गरीबी से मांगे आज़ादी
जो आत्महत्याओं पर करे सवाल
जो शिक्षा की दुर्दशा पर मांगे जवाब
ध्यान रहे युद्ध से लौटना मत ज़िंदा
नहीं तुम भी मार दिए जाओगे
इसलिए कि
तुम्हारी पहचान उजागर हो चुकी होगी
फ़िर हम भी नहीं पहचानेंगे तुम्हें
आख़िर
तुम्हारा क्या भरोसा?
हो तो तुम भी बेरोजगार ही
किसानी से पलने वाले नौजवान ही!
लड़ाई धर्म की नहीं है!
हिंदू नेता का नारा
हम सबका दुश्मन मुस्लिम
मुस्लिम नेता बोला
हम सबका दुश्मन हिंदू
हिंदू पहले किसी मुस्लिम को मारे
उसके पहले
ब्राह्मण का दुश्मन ठाकुर
ठाकुर का यादव
यादव का दलित
दलित का महादलित
उसके बाद
ब्राह्मण का ब्राह्मण ही
ब्राह्मण का ब्राह्मण पड़ोसी ही
ब्राह्मण का ब्राह्मण परिवार ही
मुस्लिम पहले किसी हिंदू को मारे
उसके पहले
शिया का दुश्मन सुन्नी
खान का पठान
अंसारी का अहमद
इसी क्रम में
क्या हिंदू, क्या मुसलमान
क्या सिक्ख, क्या ईसाई?
सबकी धर्म से पहले
जातीय दुश्मनी चलती
समझने की बात यह है कि
जो अपना दुश्मन
ग़रीबी, बेकारी, अशिक्षा
जड़ता, आडंबर, मूर्खता
जल, जंगल, ज़मीन के दोहक
सरकारी अमला के लुटेरों
कार्पोरेट्स के छल-छद्म
आदि को नहीं मानता
पहली बात कि
वह इंसान नहीं
जो इंसान नहीं
वह न तो सच्चा हिंदू
न सच्चा मुसलमान
न सच्चा सिक्ख
न ही सच्चा ईसाई
ना ही कोई उसका धर्म
ना उसका कोई भगवान
जुड़ने का नियम
बदल रहा है
मनुष्यों के जुड़ने का नियम
तय सा दिखता है नियमों का क्रम
अपनी जाति
अपने क्षेत्र
अपने गांव
अपने परिवार
कोई न मिले तो
सवर्ण हो
सवर्ण न मिले तो
पिछड़ा हो
पिछड़ा न हो तो
दलित हो
दलित न हो तो
हिंदू तो हो ही
ठीक यही नियम
मुसलमान, ईसाई, सिक्ख
सभी पालन करते दिख रहे
मनुष्यों के जुड़ने की शर्त
यदि यही बनी रही
फ़िर कोई मनुष्य नहीं
सभी आदमखोर जातियां होंगी
सवाल
सवाल
पानी पर खींची लकीर नहीं
सवाल
हवा में हस्ताक्षर नहीं
सवाल
धरा का अदृश्य क्षितिज नहीं
सवाल
बिना आग का धुंआ नहीं
सवाल
जिंदा लोगों की दास्तान
सवाल
मुश्किलों के हल का जज़्बा
सवाल
सत्ता की क्रूरता पर हमला
सवाल
खुशनुमा दुनिया का राज़
सवालों को इस तरह समझने वाले
ढूंढ ही लेते हैं उत्तर
वह उत्तर
जो सवालों के बिना
हमेशा के लिए अनुत्तरित रह जाते