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Kavita Kosh से
कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ हरा-भरा है
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा
जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा में मैं मारा-मारा।
जानवरों के शिकार से
हो गई मजबूरी इतनी
हाय पापी पेट क्या न कराये
चोरी-चकारी, हत्याएंहत्याएँ, हमले, प्रपंच
जेब काटना, बाल काटना
पेड़ काटना, कुर्सी बनाना
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी
ढेरों दवाएँ औऱ महामारी
विकास ही विकास चहुं चहुँ ओरनए-नए हथियार , टैंक, युद्धपोत, विमान
अमीरी और ग़रीबी
ऐय्याशी और मज़दूरी
लोकतंत्र के नाम पर रोटी की बहस को
बदल दिया विकास की बहस में
ज्ञान-विज्ञान-अनुसंधान और प्रबंधन की बहस में।
आज जब कोई भूखा
तू बचेगा भी या नहीं, पता नहीं
हम सुरक्षित रहेंगे
और हमारे खजाने खज़ाने भरे रहेंगे
हम रोटी के बिना ज़िंदा रहते हैं
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं
जा अब हमें पुष्प वर्षा करने दे।
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