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कहां कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो खुली धूप में
और वह निधड़क
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हंसतीहँसती
अचानक खिलखिला कर
खुली रेत पर बिछ जाती थी
आकाश हो जाता था
गुनगुनी बांहों बाँहों में
कचनार कलियों का परस,
सांसों साँसों मेंचटखते गुलाबों की खुशबूख़ुशबू
तिर आती थी...
उजले हंसों की तरह
अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएंहवाएँवे जिद्दी ज़िद्दी उफान,
मगर
अब भी, कभी-कभी
पूछता है सवाल
कि कहां कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गंुजलक गुल्लक मेंकैद क़ैद हो जाता था!
</poem>
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