भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं, मेरे साँवरे !<br>हैयमुना के नीले जल में<br>मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तनतुम हो जो सारे आवरण दूर करमुझे चारों ओर से कण-बिम्बकण, और उस के चारों<br>रोम-रोमओर साँवली गहराई का अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह प्रसार जानते हो<br>कैसा लगता हैआलिंगन में पोर-<br><br>पोरकसे हुए हो !