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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
यह जो दोपहर के सन्नाटे में<br>क्या तुम समझते हो कि मैंयमुना के इस निर्जन घाट पर भाँति अपने सारे वस्त्र<br>किनारे रख<br>मैं घण्टों जल में निहारती को देखती हूँ<br><br>?
क्या तुम समझते नहीं, मेरे साँवरे !यमुना के नीले जल मेंमेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारोंओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो कि मैं<br>इस भाँति अपने को देखती हूँ ?<br><br>कैसा लगता है-
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं, मेरे साँवरे !<br>हैयमुना के नीले जल में<br>मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तनतुम हो जो सारे आवरण दूर करमुझे चारों ओर से कण-बिम्बकण, और उस के चारों<br>रोम-रोमओर साँवली गहराई का अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह प्रसार जानते हो<br>कैसा लगता हैआलिंगन में पोर-<br><br>पोरकसे हुए हो !
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है<br>यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर<br>मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम<br>अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर<br>कसे हुए हो !<br><br> यह क्या तुम समझते हो<br>घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ<br>नहीं, मेरे साँवरे ! <br/poem>
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