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भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी ज़िन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें चूमते है
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा फँसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे पर सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं मुँह घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसानाफँसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||कचहरी। । </poem>