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{{KKRachna
|रचनाकार=पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
माला के मोतियों को बिखरने नहीं दिया।
आँखों से आंसुओं को निकलने नहीं दिया॥
जिसकी हर इक ईंट को तुमने सजाया था।
उस दर्द की दीवार को गिरने नहीं दिया॥
सुख के सूए को हमने है रखा सम्भाल कर
पिंजरे से दुःख के उसे उड़ने नहीं दिया॥
हर प्यार के बिरवे को बचाया है धूप से।
इस मोम के उपवन को पिघलने नहीं दिया॥
मालिक ने क्या किया ये बताता था वह मजूर।
चाबुक की मार पर भी सिसकने नहीं दिया॥
शतरंज का-सा खेल बन गई है ज़िंदगी।
प्यादों ने बादशाह को बचने नहीं दिया॥
सहमा हुआ-सा लगता है इस युग का आदमी।
चिंता ने पेट की उसे हँसने नहीं दिया॥
</poem>
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माला के मोतियों को बिखरने नहीं दिया।
आँखों से आंसुओं को निकलने नहीं दिया॥
जिसकी हर इक ईंट को तुमने सजाया था।
उस दर्द की दीवार को गिरने नहीं दिया॥
सुख के सूए को हमने है रखा सम्भाल कर
पिंजरे से दुःख के उसे उड़ने नहीं दिया॥
हर प्यार के बिरवे को बचाया है धूप से।
इस मोम के उपवन को पिघलने नहीं दिया॥
मालिक ने क्या किया ये बताता था वह मजूर।
चाबुक की मार पर भी सिसकने नहीं दिया॥
शतरंज का-सा खेल बन गई है ज़िंदगी।
प्यादों ने बादशाह को बचने नहीं दिया॥
सहमा हुआ-सा लगता है इस युग का आदमी।
चिंता ने पेट की उसे हँसने नहीं दिया॥
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