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स्वर्ण / विकास पाण्डेय

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<poem>
वह स्वर्ण,
जिसकी पीत-कांति पर
रहते हैं आप मुग्ध,
वह कभी दबा होता है
भारत के किन्हीं कुडप्पा
या धारवाड़ चट्टानों में,
या अफ्रीका के प्लेसर निक्षेपों में।
वह स्वर्ण,
जिससे निर्मित आभूषणों के सौन्दर्य पर
मोहित रहती हैं यौवनाएँ,
उस स्वर्ण की मातृ चट्टानों को
उड़ाया गया होता है डायनामाइट से
और पीसा गया होता है
दैत्याकार मशीनों से।
वह स्वर्ण,
जिसे पहन कर, लकदक
चलते हैं लोग,
उसके खनन में कुचल गया होता है
किसी द्रविड़ या पिग्मी
या मसाई का हाथ।

वह स्वर्ण
जो अर्थव्यवस्था का एक मानक है,
उसे चमकाने में खपे होते हैं,
किसी के जीवन के प्रत्येक दिन के
बारह-बारह घण्टे,
मर गई होती है
किसी की जिजीविषा।

स्वर्ण, यूँ ही
स्वर्ण नहीं बन गया होता है।
</poem>
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