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प्रेम / लीलाधर जगूड़ी

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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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प्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेम
प्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमार
प्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल है
प्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न हों
प्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला हों
नदी में डूबे पत्थर की तरह
वे लहरें नहीं गिनते
चोटें गिनते हैं
और पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैं
<Prem>liladhar jagudi Prem khud ek bhog hai jisame prem kerne wale ko khud bhogta hai premPrem khud ek rog hai jisame prem kerne wale khud rehate hain bimarPrem jo sab bandhanon se mukt kareप्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,mushkil haiPremijano ko chahiye ki we kisi ek hi ke prem me giraftar na hoPremi aayein aor sabke prem me mubtila honNadi me dube pather ki tarahWe lahrein nahien ginateChotein ginate hainAor pehale se jayada chikane, chamkile aor halake ho jate hain Prem faltu ka bojh utar deta hai,Yahan tak ki tawacha bhi.यहां तक कि त्वचा भी।</poem>Mukesh Negi
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