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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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<poem>
अगर यह निखिल सृष्टि
मेरा ही लीलातन है
तुम्हारे आस्वादन के लिए-
अगर यह निखिल सृष्टि<br>ये उत्तुंग हिमशिखरमेरा मेरे ही लीलातन है<br>- रुपहली ढलान वालेतुम्हारे आस्वादन के लिएगोरे कंधे हैं -<br><br>जिन पर तुम्हारागगन-सा चौड़ा और साँवला औरतेजस्वी माथा टिकता है
अगर ये उत्तुंग हिमशिखर<br>यह चाँदनी मेंहिलोरें लेता हुआ महासागरमेरे ही - रुपहली ढलान वाले<br>निरावृत जिस्म कागोरे कंधे हैं उतार- जिन पर तुम्हारा<br>गगन-सा चौड़ा और साँवला और<br>तेजस्वी माथा टिकता चढ़ाव है<br><br>
अगर यह चाँदनी में<br>ये उमड़ती हुई मेघ-घटाएँहिलोरें लेता हुआ महासागर<br>मेरे मेरी ही निरावृत जिस्म का<br>बल खाती हुई वे अलकें हैंउतारजिन्हें तुम प्यार से बिखेर करअक्सर मेरे पूर्ण-चढ़ाव है<br><br>विकसितचन्दन फूलों को ढँक देते हो
अगर सूर्यास्त वेला मेंपच्छिम की ओर झरते हुए ये उमड़ती हुई मेघअजस्र-घटाएँ<br>प्रवाही झरनेमेरी ही बल खाती हुई वे अलकें स्वर्ण-वर्णी जंघाएँ हैं<br>जिन्हें तुम प्यार से बिखेर कर<br>अक्सर मेरे पूर्ण-विकसित<br>चन्दन फूलों को ढँक देते हो<br><br>
और अगर सूर्यास्त वेला में<br>यह रात मेरी प्रगाढ़ता हैपच्छिम की ओर झरते हुए ये<br>और दिन मेरी हँसीअजस्र-प्रवाही झरने<br>और फूल मेरे स्पर्शमेरी ही स्वर्ण-वर्णी जंघाएँ हैं<br><br>और हरियाली मेरा आलिंगन
और अक्सर आकाशगंगा के<br>सुनसान किनारों पर खड़े हो कर<br>जब मैंने अथाह शून्य चन्द्रलोक के विराट्, अपरिचित, झुलसेपहाड़ों की गहरी, दुर्लंघ्य घाटियों में<br>अनन्त प्रदीप्त सूर्यों अज्ञात दिशाओं से उड़ कर आने वालेधुम्रपुंजों को<br>टकराते औरकोहरे अग्निवर्णी करकापात सेवज्र की गुफाओं में पंख टूटे<br>चट्टानों कोजुगनुओं घायल फूल की तरह रेंगते बिखरते देखा है<br>तो मुझे भय क्यों लगा हैऔर मैं भयभीत होकर लौट क्यों आयी हूँ……<br><br>हूँ मेरे बन्धु!क्या चन्द्रमा मेरे ही माथे कासौभाग्य-बिन्दु नहीं है?
और अक्सर जब मैंने<br>चन्द्रलोक अगर यह चन्द्रमा मेरी उँगलियों के विराट्, अपरिचित, झुलसे<br>पहाड़ों पोरों की गहरी, दुर्लंघ्य घाटियों में<br>छाप हैअज्ञात दिशाओं से उड़ कर आने वाले<br>और मेरे इशारों पर घटता और बढ़ता हैधुम्रपुंजों को टकराते और<br>अगर यह आकाशगंगा मेरे हीअग्निवर्णी करकापात से<br>वज्र केश-विन्यास की चट्टानों को<br>घायल फूल की तरह बिखरते देखा शोभा है<br>और मेरे एक इंगित पर इसके अनन्तब्रह्माण्ड अपनी दिशा बदलसकते हैं-तो मुझे भय क्यों लगा डर किससे लगता है<br>और मैं लौट क्यों आयी हूँ मेरे बन्धु!<br>क्या चन्द्रमा मेरे ही माथे का<br>सौभाग्य-बिन्दु नहीं है?<br><br>