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|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन
}}
[[Category:रुबाई]]
<poem>
बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।
बड़े बड़े परिवार मिटें योंसब मिट जाएँ, एक न हो रोनेवालाबना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,<br>हो जाएँ सुनसान महल वेसूखें सब रस, जहाँ थिरकतीं सुरबालाबने रहेंगे,<br>राज्य उलट जाएँकिन्तु, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाएहलाहल औ' हाला,<br>जमे रहेंगे पीनेवालेधूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२१।<br><br>मधुशाला।।२२।
सब मिट जाएँबुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, बना रहेगा सुन्दर चंचल प्याला,छैल छबीला, रसिया साकी, यम कालाअलबेला पीनेवाला,<br>सूखें सब रसपटे कहाँ से, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल मधुशाला औ' हालाजग की जोड़ी ठीक नहीं,<br>धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनेंजग जर्जर प्रतिदन,<br>जगा करेगा अविरत मरघटप्रतिक्षण, जगा करेगी मधुशाला।।२२।<br><br>पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँकाकहे, चंचल प्यालावह मतवाला,<br>छैल छबीलापी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,<br>पटे कहाँ सेदास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, मधुशाला औ' जग प्याले की जोड़ी ठीक नहीं,<br>विश्वविजयिनी बनकर जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।<br><br>में आई मेरी मधुशाला।।२४।
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहेहरा भरा रहता मदिरालय, वह मतवाला,<br>पी लेने पर तो उसके मुँह जग पर पड़ जाएगा तालाजाए पाला,<br>दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा कीवहाँ मुहर्रम का तम छाए, प्याले यहाँ होलिका कीज्वाला,<br>विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।<br><br>स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।
हरा भरा रहता मदिरालयएक बरस में, जग पर पड़ जाए पालाएक बार ही जगती होली की ज्वाला,<br>वहाँ मुहर्रम का तम छाएएक बार ही लगती बाज़ी, यहाँ होलिका जलती दीपों की ज्वालामाला,<br>स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा परदुनियावालों, दुख क्या जानेकिन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,<br>पढ़े मर्सिया दुनिया सारीदिन को होली, रात दिवाली, ईद रोज़ मनाती मधुशाला।।२५।<br><br>मधुशाला।।२६।
एक बरस मेंनहीं जानता कौन, एक बार ही जगती होली की ज्वालामनुज आया बनकर पीनेवाला,<br>एक बार ही लगती बाज़ीकौन अपिरिचत उस साकी से, जलती दीपों की मालाजिसने दूध पिला पाला,<br>दुनियावालोंजीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, किन्तुइस कारण ही, किसी दिन आ मदिरालय जग में देखो,<br>दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।<br><br>आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।
नहीं जानता कौनबनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला, मनुज आया बनकर पीनेवाला,<br>कौन अपिरिचत उस साकी सेबनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला, जिसने दूध पिला पाला,<br>जीवन पाकर मानव पीकर मस्त बनी रहेवह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने, इस कारण ही,<br>जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।<br><br>बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हालासकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,<br>बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्यालामंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,<br>बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त मित्रों, मेरी क्षेम जो होना जानेपूछो आकर, पर मधुशाला की,<br>बनें रहें ये पीने वालेकहा करो 'जय राम' न मिलकर, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।<br><br>कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।
सकुशल समझो मुझकोसूर्य बने मधु का विक्रेता, सकुशल रहती यदि साकीबालासिंधु बने घट, जल, हाला,<br>मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवालाबादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,<br>मित्रोंझड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, मेरी क्षेम न पूछो आकररिमझिम, पर मधुशाला कीरिमझिम कर,<br>कहा करो 'जय राम' न मिलकरबेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।<br><br>वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।
सूर्य बने तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जलप्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,<br>बादल बन-बन आए मज्ञल्तऌा समीरण साकीबनकर अधरों पर छलका जाए, भूमि फैले हों जो सागर तट से विश्व बने मधु का प्याला,<br>झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,<br>बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।<br><br>यह मधुशाला।।३१।
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्यालाअधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,<br>सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हालाभाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,<br>मज्ञल्तऌा समीरण हर सूरत साकी बनकर अधरों पर छलका जाएकी सूरत में परिवर्तित हो जाती,<br>फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।<br><br>आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हालापौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,<br>भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा भरी हुई है प्यालाजिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,<br>हर सूरत साकी माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की सूरत में परिवर्तित हो जातीमदिरा पीते हैं,<br>आँखों के आगे हो कुछ भीझूम झपक मद-झंपित होते, आँखों में उपवन क्या है मधुशाला।।३२।<br><br>मधुशाला!।३३।
पौधे आज बने हैं प्रति रसाल तरू साकी ले ले फूलों का सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,<br>भरी हुई छलक रही है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत बाहर मादक सौरभ की हाला,<br>माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,<br>छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डालीझूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला!।३३।<br><br>मधुशाला।।३४।
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,<br>छलक रही है जिसके बाहर मादक मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हालाभर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,<br>छक जिसको मतवाली कोयल कूक छक, झुक झुक झूम रही डाली डाली<br>हर मधुऋतु में अमराई हैं, मधुबन में जग उठती है मधुशाला।।३४।<br><br>मधुशाला।।३५।
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला<br>साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधुतारक-मदमणि-मतवालामंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,<br>हरे हरे नव पल्लवअगणित कर-किरणों से जिसको पी, तरूगणखग पागल हो गाते, नूतन डालें, वल्लरियाँ,<br>छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन प्रति प्रभात में है मधुशाला।।३५।<br><br>पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।
साकी बन उतर नशा जब उसका जाता, आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा संध्या बाला,<br>तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,<br>अगणित करजीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जातेसुरा-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,<br>प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।<br><br>सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।
उतर नशा जब उसका जाता, आती अंधकार है संध्या बालामधुविक्रेता,<br>सुन्दर साकी शशिबालाबड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,<br>जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते<br>जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकीसुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।<br><br>तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
अंधकार है मधुविक्रेताकिसी ओर मैं आँखें फेरूँ, सुन्दर साकी शशिबाला<br>किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का दिखलाई देती हालाकिसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,<br>पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी<br>तारकदल से पीनेवालेकिसी ओर मैं देखूं, रात नहीं हैमुझको दिखलाई देता साकीकिसी ओर देखूं, मधुशाला।।३८।<br><br>दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला<br>किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,<br>किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी<br>किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।<br><br> साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,<br>जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,<br>योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,<br>देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।<br><br><br/poem>{{KKPageNavigation|पीछे=मधुशाला / भाग १ / हरिवंशराय बच्चन|आगे=मधुशाला / भाग ३ / हरिवंशराय बच्चन|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन}}
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