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पिता / अशोक शाह

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तुम छोड़ जाओगे एक दिन
आजीवन दुःख रहेगा
तुम्हारे बाद सिर्फ पश्चाताप रहेगा
तुमने जिस चाक पर गढ़ा
उससे कितना बड़ा हो गया
तुम्हारा अतीव दुलार पा
राई से पहाड़ हो गया
अपने आखिरी दिनों के लिए
तुमने माचिस की डिबिया की तरह रखा सहेज
तुम्हारी अपेक्षाओं के पूर्ण होने के पहले ही
कोमल भावनाओं के बंधन तोड़ निर्भीक
निकल गया बाहर
तुम जिंदगी भर बटोरते रहे
मैं प्रकाश सदृश बिखरता रहा
याद नहीं
तुम्हारे दुलार का अनुचित लाभ उठाया
तुम्हारे काँपते अंजुलि भर जल का
अमृत की तरह किया उपयोग
तुम्हारी निर्दोष मिट्टी में
अमरबेल की तरह फैलता गया
मैं दीप बाती-सा जला
तुम स्नेह की तरह कमते गए
 
कोई दुःख नया नहीं रहा तुम्हारे लिए
सब आए तुम्हारे द्वार गले मिल के गए
धरती से उखड़ जाएँगे पाँव
उस दिन मेरे सिर से
अदृश्य हो जाएँ तुम्हारे हाथ
मेरी जानी-पहचानी ऋतुएँ हो जाएँगी समाप्त
तुम्हारे साथ की सुबहें
वह धूप-सी दोपहर
लालटेन की लौ भरी शाम
भोर होने के पहले का तुम्हारा
हिमालय-सा विश्वास भी
पिघल जाएगा
 
 
तुम जी खोलकर बता नहीं पाए
सबसे प्यारी अपनी इच्छा
न पूछ पाया सबब
तुम्हारी आजीवन चिंता का
 
आज तुम सागर हो
कल महासागर हो जाओगे
अनन्त लहरों का सिलसिला
ज़िन्दगी के साहिल पर छोड़ जाओगे
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