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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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लाई हूँ फूलों का हास,

लोगी मोल, लोगी मोल ?

तरल तुहिन-बन का उल्लास

::लोगी मोल, लोगी मोल ?



फैल गई मधु-ऋतु की ज्वाल,

जल-जल उठतीं बन की डाल,

कोकिल के कुछ कोमल बोल

::लोगी मोल, लोगी मोल ?



उमड़ पड़ा पावस परिप्रोत,

फूट रहे नव-नव जल-स्रोत

जीवन की ये लहरें लोल,

::लोगी मोल, लोगी मोल ?



विरल जलद-पट खोल अजान

छाई शरद-रजत-मुस्कान,

यह छवि की ज्योतस्ना अनमोल

::लोगी मोल, लोगी मोल ?



अधिक अरुण है आज सकाल --

चहक रहे जग-जग खग-बाल,

चाहो तो सुन लो जी खोल

::कुछ भी आज ना लूँगी मोल !
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