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{{KKRachna
|रचनाकार= सुरेन्द्र डी सोनी
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक हरिण और तुम इंसान / सुरेन्द्र डी सोनी
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
पैरों से जोड़कर
बड़े-बड़े बाँस
सीखा लोगों को देखना
ऊँचाई से...
कहता फिरा
कि ये बाँस
अब हिस्से हैं
मेरे ही शरीर के...
कोई माना ही नहीं…!
आज
जब मैं मरा
सबसे पहले
खोले गए वही बाँस...
अब तो मान लेते...
शरीर के जैसे ही तो हैं बाँस...!
</poem>
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|रचनाकार= सुरेन्द्र डी सोनी
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक हरिण और तुम इंसान / सुरेन्द्र डी सोनी
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पैरों से जोड़कर
बड़े-बड़े बाँस
सीखा लोगों को देखना
ऊँचाई से...
कहता फिरा
कि ये बाँस
अब हिस्से हैं
मेरे ही शरीर के...
कोई माना ही नहीं…!
आज
जब मैं मरा
सबसे पहले
खोले गए वही बाँस...
अब तो मान लेते...
शरीर के जैसे ही तो हैं बाँस...!
</poem>