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|रचनाकार=पूजा प्रियम्वदा
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<poem>
डिप्रेशन चिल्लाता हुआ नहीं आता
दिलो-दिमाग पर हावी होने को
कोई युद्धघोष नहीं होता

चुपचाप घंटो एक टक
छत को तकता हुआ
मन में छुपा कोई घुसपैठिया

जैसे नसें और हड्डियाँ
क्रांतिकारी हो कर मांगें
जिस्म की क़ैद से आज़ादी

नए-नए हुनर सीखता हो ज़हन
जैसे रोना आँसुओं के बिना
और हँसना साजिश जैसे

जैसे नाम, पहचान से जुदा होना
जैसे हर दिन में कोई खला होना
जैसे दिल की जगह सीने में पत्थर होना

जैसे किसी अजनबी दुनिया में
बोलते रहना एक विदेशी भाषा
जिसे कोई और नहीं समझता

वहाँ कहीं निर्वासित होना
दक्षिणी ध्रुव के पास
ज़हन में एक निरंतर बर्फीला तूफ़ान

जैसे किसी मुर्दा जिस्म में
होना एक धड़कता दिल
जैसे न मुर्दा होना, न ज़िंदा होना

जैसे बनाना अपनी मनपसंद चाय
छानना उसको ज़िन्दगी के प्याले में
और नाली में उड़ेल आना
</poem>