भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,
 
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
 
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
 
जनता विकल पुकार उठी, 'जय महाराज अंगेश।
 
'महाराज अंगेश!' तीर-सा लगा हृदय में जा के,
 
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।
 
'हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
 सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?' 
दुर्योधन ने कहा-'भीम ! झूठे बकबक करते हो,
 
कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
 
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
 
नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।
 
'सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,
 
जनमे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?
 
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,
 
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।
 
कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले 'छिः! यह क्या है?
 
तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
 
चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
 
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।'
 
रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
 
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
 
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
 
कहते हुए -'पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,387
edits