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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
खड्‌ग {{KKCatKavita}}<poem>खड्ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे, 
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
 
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
 
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।
 
'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
 
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
 
औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
 
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।
 
'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
 
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
 
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
 
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।
 
'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
 
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।
 ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है, 
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।
 
'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
 
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।
 कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,  
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।
 
'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
 
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
 
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,
 
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!
</poem>
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