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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय सहाब
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
जब भी मिलते हैं तो जीने की दुआ देते हैं
जाने किस बात की वो हम को सज़ा देते हैं
हादसे जान तो लेते हैं मगर सच ये है
हादसे ही हमें जीना भी सिखा देते हैं
रात आई तो तड़पते हैं चराग़ों के लिए
सुब्ह होते ही जिन्हें लोग बुझा देते हैं
ये भी खुल जाये शराबों की हक़ीक़त क्या है
सबसे पहले इन्हें साक़ी को पिला देते हैं
क्यूँ न लौटे वो उदासी का मुसाफ़िर यारो !
ज़ख़्म सीने के उसे रोज़ सदा देते हैं
जब भी आँखों से कोई अश्कों की गंगा निकले
राख टूटे हुए सपनों की बहा देते हैं
जिस्म मिटटी का है ,मिटटी में मिलाकर इसको
ज़िन्दगी ले तेरे अहसान चुका देते हैं
</poem>
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|संग्रह=
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जब भी मिलते हैं तो जीने की दुआ देते हैं
जाने किस बात की वो हम को सज़ा देते हैं
हादसे जान तो लेते हैं मगर सच ये है
हादसे ही हमें जीना भी सिखा देते हैं
रात आई तो तड़पते हैं चराग़ों के लिए
सुब्ह होते ही जिन्हें लोग बुझा देते हैं
ये भी खुल जाये शराबों की हक़ीक़त क्या है
सबसे पहले इन्हें साक़ी को पिला देते हैं
क्यूँ न लौटे वो उदासी का मुसाफ़िर यारो !
ज़ख़्म सीने के उसे रोज़ सदा देते हैं
जब भी आँखों से कोई अश्कों की गंगा निकले
राख टूटे हुए सपनों की बहा देते हैं
जिस्म मिटटी का है ,मिटटी में मिलाकर इसको
ज़िन्दगी ले तेरे अहसान चुका देते हैं
</poem>