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औरत / अशोक शाह

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वह विविधता है देशकाल की
परिवर्तन है जीवन की
जिसमें नहीं होता कोई बदलाव

एक विचार है वह
ढँंक ली है उसने पूरी पृथ्वी
जहाँ कहीं भी रहता है आदमी

वह ओढ़ती है एक बहुआयामी स्वभाव
जिसमें गूंथित है रंग-बिरंगे भाव
वह नदी जैसी खुश होती है
और एक नंगे पहाड़ की तरह दुःखी

वह सुन्दर है शिव की तरह
काल की काली है
सुबह जैसी हुलसित है
और शोषण की तरह पीड़ित

परम्पराओं की समीक्षा है वह
जीवन की अभीप्सा है
होली के बचे रंगों की पुड़िया है वह

वह नींद की बिछावन है
फिर-फिर जी जाने की
बची हुई हौसला है वह

वह हमारी आदतों में शुमार है
और अन्तर्तम में पसरी है
एक विशाल वृक्ष की जड़ों की तरह

वह वयस्क है, यौवनभरी
वह प्रेम करती है तुमसे
सभी चाहते हैं उसे

वह रिश्तों की सेतु है
जिससे होकर बहता है जीवन
अलग-अलग रूपों और संबंधों में

प्रकृति की माकूल अभिव्यंजना है वह
जिस दिन नहीं बचेंगे स्वाद और गन्ध
वह बीज बनकर उग जाएगी
सपाट धरती को बार-बार गुदगुदाती हुई
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