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Kavita Kosh से
दो अल्पविराम
मैं तुम्हें छोड़ूँगा नहीं !
किवाड़ की झिरी से
एक परचा सरका जाता है कोई
कि अब आपका मरना या ज़िन्दा रहना
धर्मान्ध, टुच्चे, झूठे और कुपढ़
कुछ इच्छाचारियों की इच्छा पर निर्भर है
कुछ का कुछ हो रहा है इन दिनों
मैं घण्टों कुर्सी पर बैठा रहता हूँ अकेला
" गोली मारो सालों को ...'
का नारा देते हुए गुज़र रहे हैं गली से
पता नहीं क्या हो रहा है इन दिनों
मोहन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे वे