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हूँ मुसाफ़िऱ सफ़र ज़रूरी है
प्यास भी तो अभी अधूरी है
मेरे घर से है दूर घर उसका
पर दिलों में न कोई दूरी है
हो न पाया मैं कामयाब कभी
मुझको आती न जी हुजूरी है
 
क्या नतीजा़ हो ख़ुदा ही जाने
मेरी कोशिश तो मगर पूरी है
 
मौत से डर किसे नहीं लगता
मेरी गरदन पे रखी छूरी है
 
खूब कुहरा है कुछ नहीं दिखता
आज की सुबह भी बेनूरी है
</poem>
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