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{{KKRachna
|रचनाकार=शंकरलाल द्विवेदी
|संग्रह=
}}
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<poem>
''''शंकर' कंगाल नहीं'''
कल सारा जग था सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं।
इसलिए कि मेरे हाथ रहे, अब कंचन थाल नहीं।।
आ कर भी द्वार सुदामा अब के होली मिला नहीं।
इसलिए कि कान्हा पर माँटी है, रंग-गुलाल नहीं।।
अब 'तिष्यरक्षिता' खटपाटी पर है, पय पिया नहीं।
इसलिए कि अँधा होने को तैयार कुणाल नहीं।।
शासन ने मुझको अब तक कोई उत्तर दिया नहीं।
इसलिए कि मैंने पूछे थे कुछ प्रश्न, सवाल नहीं।।
जनता ने बुला लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं।
इसलिए कि उसने गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।।
माँगो! कोई याचक निराश हो वापस गया नहीं।
इसलिए कि काया भर कृश है, 'शंकर' कंगाल नहीं।।
</poem>
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}}
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''''शंकर' कंगाल नहीं'''
कल सारा जग था सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं।
इसलिए कि मेरे हाथ रहे, अब कंचन थाल नहीं।।
आ कर भी द्वार सुदामा अब के होली मिला नहीं।
इसलिए कि कान्हा पर माँटी है, रंग-गुलाल नहीं।।
अब 'तिष्यरक्षिता' खटपाटी पर है, पय पिया नहीं।
इसलिए कि अँधा होने को तैयार कुणाल नहीं।।
शासन ने मुझको अब तक कोई उत्तर दिया नहीं।
इसलिए कि मैंने पूछे थे कुछ प्रश्न, सवाल नहीं।।
जनता ने बुला लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं।
इसलिए कि उसने गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।।
माँगो! कोई याचक निराश हो वापस गया नहीं।
इसलिए कि काया भर कृश है, 'शंकर' कंगाल नहीं।।
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