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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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इंसान के लिबास में पत्थर के लोग हैं
ये सब मेरे ख़्याल से बाहर के लोग हैं
इनको किसी के दर्द का एहसास ही नहीं
पत्थर हैं जिनके हाथ में पत्थर के लोग हैं
बाहर के लोग हों तो करें भी मुक़ाबला
दुश्मन हमारे अपने ही अंदर के लोग हैं
हम लोग अपनी प्यास लिए घूमते रहे
सेराब हो चुके जो समंदर के लोग हैं
चल ढूंढते हैं कोई फ़क़ीरों का आशियाँ
क्या इस महल में अपने बराबर के लोग हैं
</poem>
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इंसान के लिबास में पत्थर के लोग हैं
ये सब मेरे ख़्याल से बाहर के लोग हैं
इनको किसी के दर्द का एहसास ही नहीं
पत्थर हैं जिनके हाथ में पत्थर के लोग हैं
बाहर के लोग हों तो करें भी मुक़ाबला
दुश्मन हमारे अपने ही अंदर के लोग हैं
हम लोग अपनी प्यास लिए घूमते रहे
सेराब हो चुके जो समंदर के लोग हैं
चल ढूंढते हैं कोई फ़क़ीरों का आशियाँ
क्या इस महल में अपने बराबर के लोग हैं
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