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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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अंदर कुछ तब्दील न बाहर बदला है
हम तुम बदले और न मंज़र बदला है
बाक़ी हर सामान पुराना है घर में
बदला तो हर साल केलेंडर बदला है
हम ने पर्दा डाल रखा है आंखों पर
चहरा तो एहबाब ने अक्सर बदला है
मौसम को भी चार महीने लगते हैं
आपने साहब रोज़ करेक्टर बदला है
समझौते के दर पर दस्तक देगा कौन
शीशा बदला और न पत्थर बदला है
</poem>
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अंदर कुछ तब्दील न बाहर बदला है
हम तुम बदले और न मंज़र बदला है
बाक़ी हर सामान पुराना है घर में
बदला तो हर साल केलेंडर बदला है
हम ने पर्दा डाल रखा है आंखों पर
चहरा तो एहबाब ने अक्सर बदला है
मौसम को भी चार महीने लगते हैं
आपने साहब रोज़ करेक्टर बदला है
समझौते के दर पर दस्तक देगा कौन
शीशा बदला और न पत्थर बदला है
</poem>