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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग
आदतन बन संवर रहे हैं लोग
ख़ौफ़ रस्तों पे इतना बिखरा है
एक दूजे से डर रहे हैं लोग
मेरे घर के दिए बुझाने को
कान आंधी के भर रहे लोग
हद मे रहने की क्या क़सम खाई
अपनी हद से गुज़र रहे हैं लोग
बात इधर की उधर लगाने में
कुछ इधर कुछ उधर रहे हैं लोग
एक उंचे मुक़ाम की ख़ातिर
कितना नीचे उतर रहे हैं लोग
</poem>
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग
आदतन बन संवर रहे हैं लोग
ख़ौफ़ रस्तों पे इतना बिखरा है
एक दूजे से डर रहे हैं लोग
मेरे घर के दिए बुझाने को
कान आंधी के भर रहे लोग
हद मे रहने की क्या क़सम खाई
अपनी हद से गुज़र रहे हैं लोग
बात इधर की उधर लगाने में
कुछ इधर कुछ उधर रहे हैं लोग
एक उंचे मुक़ाम की ख़ातिर
कितना नीचे उतर रहे हैं लोग
</poem>