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खिड़कियाँ / कुमुद बंसल

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7 बंद खिंड़कियों के खुलते हीजीवन के अर्थ बदल गए ।खिड़कियाँ कब खुलीं मैं नहीं जानती ।और कितनी खिड़कियाँ खुलनी शेष हैं,यह भी नहीं जानती ।इसके विपरीत यदा_कदा यह अहसास होता हैकि जैसे मैं कमरे में नहीं,खुली वायु में, निर्विष्न ब्रहमांड में रहती हूँ :शारीरिक आवरण, देह की सीमाएँ छिन्‍न-भिन्‍न हो गई-0-
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