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बचपन की शक्ल / अनिता मंडा

2,801 bytes added, 18:59, 2 फ़रवरी 2021
एक औरत थी बहुत सारे पेड़ों की माँ
जब भी बारिश होती
बीज बोने निकल जाती झुकी हुई कमर से
मरुभूमि पर हरियाली का कसीदा बुनने का
हुनर आता था उसे
उन पेड़ों की छाँव
सुकून के धागों से बनी चादर सी बिछती
अल सुबह चिड़ियाँ उन पर दुआ के गीत गातीं
उसकी सींची झाड़ियों के बेरों की मिठास की
आदी रही पूरे घर की ज़ुबान
एक औरत ने चरखे पर ऊन के फाए काते
तन सिहराती सर्द हवाओं को रोका
कोहरे वाली सुबह के बाद की
कुनमुनी धूप सी थी वो नरम मुलायम
चूल्हे पर सिकती रोटी की महक़ सी
 
एक और औरत के कन्धों पर बैठ
दुनिया को कुछ ऊँचाई से देखते हुए
इतराए हम
उसके दुलार की धारा में डूबते हुए
बहते हुए तैरते थे
 
एक दूसरी औरत ने
कठपुतली की तरह नाचने वाली गुड़ियों से
बाँधे रखा बालमन को
रंग-बिरंगे कपड़ों के बचे हुए टुकड़े
उसके हाथ लगने से
बेशकीमती खिलौने बन जाते
इंद्रधनुष को हम नाचता हुआ पाते
उसकी हँसी में
 
एक पुरुष इल्म की ज्योति से अंधकार मिटाता
हर पहाड़ा सफ़ेद धोती-कुर्ता पगड़ी धारण किये
एक सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ वाले इंसान की शक्ल इख़्तियार कर लेता
दुनियावी जोड़-बाकी, गुणा-भाग से परे
अक्षरों की पूँजी बाँटी
 
एक और पुरुष रसगुल्ले के पर्याय से
घुले रहे बचपन के क़िस्सों में
 
बचपन जी शक्ल हू ब हू मिलती है
दादा-दादी नाना-नानी से.
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