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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|अनुवादक=
|संग्रह=हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
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<poem>
समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये!
"शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,
किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे?
दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है,
वह्नि-रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है।
रण की घडी, जलन की बेला, रुधिर-पंक में गान करो,
अपनी आहुति धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो।"
वर्त्तमान के हठी बाल ये रोते हैं, बिललाते हैं,
रह-रह हृदय चौंक उठता है, स्वप्न टूटते जाते हैं।
श्रृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किंतु, कहो क्या गाऊँ मैं?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं?
विधि का शाप, सुरभि-साँसों पर लिखूँ चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बँधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का?
यह बेबसी, गगन में भी छूता धरती का दाह मुझे,
ऐसा घमासान! मिट्टी पर मिली न अब तक राह मुझे।
तुम्हें चाह जिसकी वह कलिका इस वन में खिलती न कहीं,
खोज रहा मैं जिसे, जिन्दगी वह मुझको मिलती न कहीं।
किन्तु, न बुझती जलन हृदय की, हाय, कहाँ तक हुक सहूँ?
बुलबुल सीना चाक करे औ' मैं फूलों-सा मूक रहूँ?
रण की घडी, जलन की वेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि शिखा यज्ञ की अपना हवन चढाऊँगा।
'वर्त्तमान की जय', अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में, बन्दी की जंजीर बजे।
नई किरण की सखी, बाँसुरी, के छिद्रों से कूक उठे,
साँस-साँस पर खडग-धार पर नाच हृदय की हूक उठे।
नये प्रात के अरुण! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल! उठ जागो, हुंकारो, कुछ गान करो।
किसकी आहट? कौन पधारा? पहचानो, टूक ध्यान करो,
जगो भूमि! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।
'जय हो', युग के देव पधारो! विकट, रुद्र, हे अभिमानी!
मुक्त-केशिनी खड़ी द्वार पर कब से भावों की रानी।
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि! बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली।
(होलिकोत्सव, १९९५,वि०)
</poem>
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समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये!
"शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,
किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे?
दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है,
वह्नि-रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है।
रण की घडी, जलन की बेला, रुधिर-पंक में गान करो,
अपनी आहुति धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो।"
वर्त्तमान के हठी बाल ये रोते हैं, बिललाते हैं,
रह-रह हृदय चौंक उठता है, स्वप्न टूटते जाते हैं।
श्रृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किंतु, कहो क्या गाऊँ मैं?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं?
विधि का शाप, सुरभि-साँसों पर लिखूँ चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बँधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का?
यह बेबसी, गगन में भी छूता धरती का दाह मुझे,
ऐसा घमासान! मिट्टी पर मिली न अब तक राह मुझे।
तुम्हें चाह जिसकी वह कलिका इस वन में खिलती न कहीं,
खोज रहा मैं जिसे, जिन्दगी वह मुझको मिलती न कहीं।
किन्तु, न बुझती जलन हृदय की, हाय, कहाँ तक हुक सहूँ?
बुलबुल सीना चाक करे औ' मैं फूलों-सा मूक रहूँ?
रण की घडी, जलन की वेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि शिखा यज्ञ की अपना हवन चढाऊँगा।
'वर्त्तमान की जय', अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में, बन्दी की जंजीर बजे।
नई किरण की सखी, बाँसुरी, के छिद्रों से कूक उठे,
साँस-साँस पर खडग-धार पर नाच हृदय की हूक उठे।
नये प्रात के अरुण! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल! उठ जागो, हुंकारो, कुछ गान करो।
किसकी आहट? कौन पधारा? पहचानो, टूक ध्यान करो,
जगो भूमि! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।
'जय हो', युग के देव पधारो! विकट, रुद्र, हे अभिमानी!
मुक्त-केशिनी खड़ी द्वार पर कब से भावों की रानी।
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि! बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली।
(होलिकोत्सव, १९९५,वि०)
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