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{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|अनुवादक=
|संग्रह=भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुरैशी
}}
कभी जो आया था पल भर को 'उड़न—छू' बनकर
आजतक मन में चमकता है वो जुगनू बनकर
कंठ रुँधते ही, बदल जाता है भाषा का स्वरूप
शब्द तब फूटते देखे गए आँसू बनकर
जो भी आता है, भँवर में ही फँसा जाता है
ज़िन्दगी में कोई आता नहीं चप्पू बनकर
ये तो सच है कि किया पिंजरे से आज़ाद मुझे
किंतु 'पर' काट लिए उसने ही ,चाकू बनकर
मैं कोई बैल नहीं हूँ कि जो जोता जाऊँ
मेरी गर्दन पे न लद पाओगे कोल्हू बनकर
आज तक जिअने भी आशीष दिए हैं माँ ने
तन गए सिर पे सुरक्षाओं के तंबू बनकर
</poem>