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<poem>
मन ही मन हँस रही दरार
होने को है घर-बाज़ा॒र
अम्मा रहना, जरा सम्भल के
याद आएँगे क़िस्से कल के

पहले तो घर के सब प्राणी
बदलेंगे निज रुचियाँ
फिर बहसों की भेंट चढ़ेंगी
घर की सारी ख़ुशियाँ

रूखे-रूखे हो जाएँगे
घर भर के सारे व्यवहार
अम्मा रहना जरा सम्भल के
यह बदलाव नहीं कुछ पल के

धीरे-धीरे फिर आँगन के
हो जाएँगे हिस्से
कट जाएगा पेड़ नीम का
रह जाएँगे क़िस्से

दीख रहे हैं मुझको तो बस
ऐसे ही कुछ-कुछ आसार
अम्मा रहना जरा सम्भल के
मेरी बात न लेना हलके

चीज़ों के संग-संग रिश्तों के
मूल्य लगेंगे भारी
अश्कों का सौदा कर लेंगे
ये घर के व्यापारी

नैतिकता के मृत्युबोध को
छापेंगे हर दिन अख़बार
अम्मा रहना जरा सम्भल के
आ बैठेंगे संकट चल के
</poem>
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