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{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
राजकोष भरकर भी क्यों है
रीता ही कश्कोल ।
कितनी सदियाँ बीतीं अब तक,
फूँके कितने मंत्र ।
राजमहल के किन्तु न होते,
ख़त्म कभी षड़यंत्र ।
उदर भूख के मारे खोजें,
रोटी का भूगोल ।
पोर-पोर में पीर बसी है,
हृदय उठा सैलाब ।
श्वेत रंग के बगुले भी अब,
रोज़ बढ़ाते दाब ।
घूरे पर है भाग्य देश का,
रोटी रहा टटोल ।
राजकाज का वैभव पाने,
रचते कुटिल प्रपंच ।
रजत वर्क में झूठ परोसें,
लम्बे-चौड़े मंच ।
माहुर गंगाजली बताएँ
कहते पी मधु घोल ।
</poem>
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राजकोष भरकर भी क्यों है
रीता ही कश्कोल ।
कितनी सदियाँ बीतीं अब तक,
फूँके कितने मंत्र ।
राजमहल के किन्तु न होते,
ख़त्म कभी षड़यंत्र ।
उदर भूख के मारे खोजें,
रोटी का भूगोल ।
पोर-पोर में पीर बसी है,
हृदय उठा सैलाब ।
श्वेत रंग के बगुले भी अब,
रोज़ बढ़ाते दाब ।
घूरे पर है भाग्य देश का,
रोटी रहा टटोल ।
राजकाज का वैभव पाने,
रचते कुटिल प्रपंच ।
रजत वर्क में झूठ परोसें,
लम्बे-चौड़े मंच ।
माहुर गंगाजली बताएँ
कहते पी मधु घोल ।
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