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<poem>
धरती का भगवान हुए क्यों
सपने लहूलुहान ।

नीति नियंता कभी न अफ़रे
जितने भी आए ।
तारणहार तुम्हारे हमने
छद्म गीत गाए ।

सत्ता की महराब, पीर क्या
समझें छप्पर छान ।

उचित मूल्य फ़सलों का हलधर
कब-कब हैं लाए ।
खड़ी फ़सल चौपाये चरते ,
पथ पर दोपाये ।

कृषि प्रधान है देश हमारा
भूखा मगर किसान ।

खेतों तक कब जन की सत्ता
आएगी चलकर ।
कृषक सुबकते, हाक़िम भरते
नित कुबेर का घर ।

कृषक हितों की बात छलावा
पूँजीवाद महान !
</poem>
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