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<poem>
क्या खोया क्या पाया हमने
होकर अधुनातन ।

उन्नति के हित नित्य चढ़े हम
अवनति की सीढ़ी ।
सम्वादी स्वर मूक हु़ए हैं,
पीढ़ी दर पीढ़ी ।

रिश्तों में अनवरत बढ़ा है
घातक विस्थापन ।

दादी नानी परी कहानी
सब बीते क़िस्से ।
चम्पक नन्दन सब चम्पत, है
सूनापन हिस्से ।

बचपन में ही है बच्चों से
बचपन की अनबन ।

काट मूल मशगूल अर्थ की,
छाछ बिलोने में,
अनुभव के आकाश बिठाए
हमने कोने में ।

उधड़ गई है जोड़-गुणा में ,
रिश्तों की सीवन ।

चैन हमारा रहीं निरन्तर,
लिप्साएँ पीतीं ।
निहित स्वार्थ में अपनेपन की,
हर अँजुरी रीती ।

समाधान अब शेष समय में,
सिल उधड़ी तुरपन ।
</poem>
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