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|संग्रह=स्त्रियाँ घर लौटती हैं / विवेक चतुर्वेदी
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<poem>
पुरुषों से भरा वह टेम्पो रुका
और कोने की ख़ाली जगह में
सकुचा कर बैठ गई है एक स्त्री

सहसा...थम गए हैं
पुरुषों के बेलगाम बोल
सुथर गई है देहभाषा
एक अनकही सुगन्ध का सूत
रफू कर रहा है पाशविकता के छेद
अनुभूति दूब सी हरी हो चली है

कुछ ऐसा ही तो हुआ होगा
शुरू-शुरू में
दहकती पृथ्वी के साथ भी ।।
</poem>
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