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नज़्म की तख़्लीक़ / उदय कामत

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इक नाज़ुक सा दर्द अकेला कितने मरहलों से गुज़रा है
कितनी टटोलीं उसने यादें साथ जिन्हें वो ले के चला है
जब मिले रंज-ओ-ज़ख्म लगा फिर इनमे अज़ल से शनासाई है
जब पहचान बनी लफ़्ज़ों से देखी इनमे यकताई है
फिर इक करवट पर मिली इनको एक अकेली तन्हाई है
सहरा में बादलों ने चाहत की जैसे बूँद यूँ बरसाई है
इस निस्बत से महकी फ़ज़ा और क़ौस-ए-कुज़ह नज़र आई है
अब यूँ दूर उफ़ुक़ पे मंज़िल बनके नज़्म ये मुस्काई है
यूँ मिली नज़्म म&#39;आद में हमने समझी उसकी गहराई है
नज़्म ये रूदाद-ए-दिल की हर मरतबा हमने दोहराई है
</poem>
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