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{{KKRachna
|रचनाकार=कन्हैयालाल मत्त
|अनुवादक=
|संग्रह=अपनी वाणी : अपने गीत / कन्हैयालाल मत्त
}}
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<poem>
मेरी आँखों में अश्रु, अधर पर मधुर हास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
तुम याद करो वह दिन जब पहला कमल खिला था
मैं उसी नाभि के मूल केन्द्र में घुला-मिला था
जब सारा कल्प-विधान एक में नहीं समाया
मैं स्वयं बना मनु-धर्म, स्वयं बन गया इला था
यह सृष्टि-प्रलय मेरे जीवन का उपन्यास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मैं राम बना सुनकर धरती माता का दुखड़ा
जब तक उत्पीड़न रहा, रहा मन उखड़ा-उखड़ा
जब भ्रमित यशोदा हुई स्नेह के आरोपों से
मैं ध्रुव-विराट बन गया दिखाकर अपना मुखड़ा
यह आदि-अन्त मेरे आवर्तन का परास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मैं निर्माणों में नए-नए विश्वास जगाता
मैं मरुस्थलों में श्रेय-प्रेय के वृक्ष उगाता
मैं जन-जागृति के पर्व-पर्व का पुरश्चरण हूँ
मैं दण्ड-भेद का नहीं, साम का हूँ उद्गाता
मेरे जीवन का ध्येय भव्यता का विकास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरे प्रयास में गति है, जड़ उपबन्ध नहीं है
मेरी पूजा का पुष्प निरा निर्गन्ध नहीं है
मेरे गीतों में गरल-सुधा का वह मिश्रण है
जिसको पीने पर ऋतुओं का प्रतिबन्ध नहीं है
यह वसन्त – केवल गर्मी-सर्दी का समास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरे सपनों में क्रान्ति, घोष में भीषण लय है
चिन्तन में दहती चिता, कल्पना अमृतमय है
मेरे शब्दों से भाव छलकते हैं करुणा के
मेरी वाणी में गुम्फित मेरा हृदय सदय है
जन-हित के लिए समर्पित मेरा श्वास-श्वास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरी भाषा स्नेहाभिव्यक्ति है नये सृजन की
है सङ्गीतों-सी मुखर सरसता शब्द-चयन की
मैं अलङ्कार की, रस-विधान की परम्परा हूँ
मेरी शैली है शिल्प-विधा साहित्य-सदन की
मेरी रचना में मौन समर्पण की मिठास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
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मेरी आँखों में अश्रु, अधर पर मधुर हास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
तुम याद करो वह दिन जब पहला कमल खिला था
मैं उसी नाभि के मूल केन्द्र में घुला-मिला था
जब सारा कल्प-विधान एक में नहीं समाया
मैं स्वयं बना मनु-धर्म, स्वयं बन गया इला था
यह सृष्टि-प्रलय मेरे जीवन का उपन्यास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मैं राम बना सुनकर धरती माता का दुखड़ा
जब तक उत्पीड़न रहा, रहा मन उखड़ा-उखड़ा
जब भ्रमित यशोदा हुई स्नेह के आरोपों से
मैं ध्रुव-विराट बन गया दिखाकर अपना मुखड़ा
यह आदि-अन्त मेरे आवर्तन का परास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मैं निर्माणों में नए-नए विश्वास जगाता
मैं मरुस्थलों में श्रेय-प्रेय के वृक्ष उगाता
मैं जन-जागृति के पर्व-पर्व का पुरश्चरण हूँ
मैं दण्ड-भेद का नहीं, साम का हूँ उद्गाता
मेरे जीवन का ध्येय भव्यता का विकास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरे प्रयास में गति है, जड़ उपबन्ध नहीं है
मेरी पूजा का पुष्प निरा निर्गन्ध नहीं है
मेरे गीतों में गरल-सुधा का वह मिश्रण है
जिसको पीने पर ऋतुओं का प्रतिबन्ध नहीं है
यह वसन्त – केवल गर्मी-सर्दी का समास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरे सपनों में क्रान्ति, घोष में भीषण लय है
चिन्तन में दहती चिता, कल्पना अमृतमय है
मेरे शब्दों से भाव छलकते हैं करुणा के
मेरी वाणी में गुम्फित मेरा हृदय सदय है
जन-हित के लिए समर्पित मेरा श्वास-श्वास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
मेरी भाषा स्नेहाभिव्यक्ति है नये सृजन की
है सङ्गीतों-सी मुखर सरसता शब्द-चयन की
मैं अलङ्कार की, रस-विधान की परम्परा हूँ
मेरी शैली है शिल्प-विधा साहित्य-सदन की
मेरी रचना में मौन समर्पण की मिठास है
मैं कवि हूँ, मेरे स्वर में शङ्कर का निवास है !
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