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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का
|अनुवादक=तनुज कुमार
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''मेरी पीस के लिए'''
फिर मैं उसे ले गया
नदी की तरफ़,
हालाँकि वह रहती थी
अपने पति के साथ
लेकिन
मैं आश्वस्त था कि
वह तब भी कुँवारी ही थी...
वह मुझे याद है,
मिली थी
जुलाई के आख़िरी शुक्रवार
अपने वादों में कितनी नेक थी वह !
अकारण जहाँ —
जगमगा रहे थे झींगुर
बुझ गईं गली की बत्तियाँ
शहर के बाहर का वह अन्तिम मोड़ था
मसली थीं उसी मोड़पर
मैंने उसकी छातियाँ;
(वे तब खिल उठी थीं अकस्मात
किन्हीं जलकुम्भियों की
नोंक की तरह।)
और उसके पेटीकोट की डोरी
मचा गई हलचल
मेरे कान के भीतर
जैसे दर्जन भर ब्लेडों से चीरा गया था —
अभी-अभी रेशम...
देवदार,
जिसकी वजह से
घट रही थी चान्दनी की आभा,
बढ़ता गया
वह भूख में
वहाँ कुत्ते
आड़े आकर भौंकते रहे
नदी से बहुत-बहुत दूर
नदी की तरफ़
जाने से रोकते रहे ...
वह लच्छेदार घास और सफ़ेद काँटे
जामुन की झाड़ियों के पीछे
उस औरत के केशों के
फूस के नीचे :
लगाई थी डुबकी मैंने
बालू में पीसकर
वहीं मैं उतारता हूँ अपना दुपट्टा
वहीं वह भी
अपने कपड़े त्यागती है !
मैं,
मेरा पिस्तौल
और मेरा पिस्तौलदान
वह,
और उसकी परतों के भीतर की परतें
न ही रजनीगंधा और न ही सीप
आईने के काँच के भीतर भी
नहीं हो सकती
इतनी टिमटिमाहट जैसे दीप
उसके कूल्हे छिटके मुझसे
किसी चौंकते हुए खंदक की तरह
आग से लबालब।
उस रात में ज़रूर थी बात
जहाँ की थी सवारी मैंने
उठती हुई उन सड़कों के साथ
मोतियों से लदी हुई उस घोड़ी पर बैठकर
बे-लगाम, बे-रक़ाब
वह फुसफुसाती हुई कहती गईं
तब मेरे कान के पास —
"मैं इतना तो हूँ भला अवश्य
मनुष्य
नहीं माँगूगा वापिस उससे, कुछ भी अनचाहा...।"
यह सब कुछ जो हुआ था प्रस्तुत समक्ष;
ताकि कुतरे जा सकें मेरे होंठ
मिट्टी और चुम्बन की
गन्दगी में जीवन्त ...
मैं उसे ले गया नदी तक
और वहाँ कुमुद के शूल
मण्डराते रहे हवाओं में
मैं भी उसके साथ
वैसे ही पेश आया
जैसे आ सकता था एक दुर्जन पेश
और थमा गया उसे
एक मछुवाही टोकरी
घास के रंग-ओ-दाग़ की
मेरा कोई मन नहीं था
मैं पड़ जाऊँ
उसकी मुहब्बत में
आख़िर
वह अपने पति के साथ रहती थी,
फिर भी मैं आश्वस्त था कि वह कुँवारी हैं
तभी
मैं उसे नदी की तरफ़ ले गया...
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : तनुज कुमार'''
</poem>
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|रचनाकार=फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का
|अनुवादक=तनुज कुमार
|संग्रह=
}}
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<poem>
'''मेरी पीस के लिए'''
फिर मैं उसे ले गया
नदी की तरफ़,
हालाँकि वह रहती थी
अपने पति के साथ
लेकिन
मैं आश्वस्त था कि
वह तब भी कुँवारी ही थी...
वह मुझे याद है,
मिली थी
जुलाई के आख़िरी शुक्रवार
अपने वादों में कितनी नेक थी वह !
अकारण जहाँ —
जगमगा रहे थे झींगुर
बुझ गईं गली की बत्तियाँ
शहर के बाहर का वह अन्तिम मोड़ था
मसली थीं उसी मोड़पर
मैंने उसकी छातियाँ;
(वे तब खिल उठी थीं अकस्मात
किन्हीं जलकुम्भियों की
नोंक की तरह।)
और उसके पेटीकोट की डोरी
मचा गई हलचल
मेरे कान के भीतर
जैसे दर्जन भर ब्लेडों से चीरा गया था —
अभी-अभी रेशम...
देवदार,
जिसकी वजह से
घट रही थी चान्दनी की आभा,
बढ़ता गया
वह भूख में
वहाँ कुत्ते
आड़े आकर भौंकते रहे
नदी से बहुत-बहुत दूर
नदी की तरफ़
जाने से रोकते रहे ...
वह लच्छेदार घास और सफ़ेद काँटे
जामुन की झाड़ियों के पीछे
उस औरत के केशों के
फूस के नीचे :
लगाई थी डुबकी मैंने
बालू में पीसकर
वहीं मैं उतारता हूँ अपना दुपट्टा
वहीं वह भी
अपने कपड़े त्यागती है !
मैं,
मेरा पिस्तौल
और मेरा पिस्तौलदान
वह,
और उसकी परतों के भीतर की परतें
न ही रजनीगंधा और न ही सीप
आईने के काँच के भीतर भी
नहीं हो सकती
इतनी टिमटिमाहट जैसे दीप
उसके कूल्हे छिटके मुझसे
किसी चौंकते हुए खंदक की तरह
आग से लबालब।
उस रात में ज़रूर थी बात
जहाँ की थी सवारी मैंने
उठती हुई उन सड़कों के साथ
मोतियों से लदी हुई उस घोड़ी पर बैठकर
बे-लगाम, बे-रक़ाब
वह फुसफुसाती हुई कहती गईं
तब मेरे कान के पास —
"मैं इतना तो हूँ भला अवश्य
मनुष्य
नहीं माँगूगा वापिस उससे, कुछ भी अनचाहा...।"
यह सब कुछ जो हुआ था प्रस्तुत समक्ष;
ताकि कुतरे जा सकें मेरे होंठ
मिट्टी और चुम्बन की
गन्दगी में जीवन्त ...
मैं उसे ले गया नदी तक
और वहाँ कुमुद के शूल
मण्डराते रहे हवाओं में
मैं भी उसके साथ
वैसे ही पेश आया
जैसे आ सकता था एक दुर्जन पेश
और थमा गया उसे
एक मछुवाही टोकरी
घास के रंग-ओ-दाग़ की
मेरा कोई मन नहीं था
मैं पड़ जाऊँ
उसकी मुहब्बत में
आख़िर
वह अपने पति के साथ रहती थी,
फिर भी मैं आश्वस्त था कि वह कुँवारी हैं
तभी
मैं उसे नदी की तरफ़ ले गया...
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : तनुज कुमार'''
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