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<poem>
मुझसे क़लम छीन लेता है
मेरा डेढ़ बरस का बच्चा ।

लौटाता है नहीं प्यार से
आँख दिखाने पर भी
डाँट-डपट बेमतलब उसको
नहीं किसी का डर भी
उसकी भोली शरारतों के आगे
हर प्रपंच है कच्चा ।

लौटाने को क़लम बढा़कर
हाथ खींच लेता है
"बिल्ली क़लम ले गई" कहकर
कहीं छिपा देता है
"गन्दा" कहने पर कहता है —
"पापा गन्दे हैं, मैं अच्छा !"

पन्नों पर बुन देता है वह
रेखाओं के जाले
और ग़ौर से देखे जैसे
गहरे अर्थ निकाले
समझ नहीं, आते आएँगे
व्यवहारों में खाते गच्चा ।

जैसे-तैसे क़लम छीन लूँ
लिखने बैठूँ कविता
कभी ताल में आ सकती है
नदी सरीखी शुचिता
रचना-ज्ञान कहाँ दे सकते
बाल-सुलभ मन-सा सुख सच्चा ।
</poem>
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