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<poem>
कतरा-कतरा
चूस रहे हैं
अमरबेल के सौदे ।

नक़ली बीज, दवाएँ, खादें
ऋण-पूँजी का रोना
मौसम का पल-पल विध्वंसक
आतंकी भी होना
किधर तकें
असमंजस में हैं
सूर्यमुखी के पौधे ।

शीत-ग्रीष्म के परहेज़ी ही
श्रम की क़ीमत आँकें
जलते हुए सवाल तमेसर
उत्तर बग़लें झाँकें
एक सनातन
भोलापन है
लोकतन्त्र के हौदे ।
</poem>
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