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|रचनाकार=रैनेर मरिया रिल्के
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
'''एक'''

लाल आग सा चमककर
सूरज गायब हो गया
चौकी के पीछे
और दिन के सप्त सुरों की
प्रभावशाली आवाज़ें
अचानक बन्द हो गईं।

छतों के कंगूरों पर
अब भी झलक रही है रोशनी
छिप-छिपकर चमक रही है
हीरों की तरह

धुएँ का गुबार
बनता जा रहा है
आकाश ।

'''दो'''

उस आख़िरी घर के पीछे
लाल सूरज डूब गया है
चला गया सोने के लिए

आख़िरी बार बजती हैं
दिन की तन्त्रिकाएँ

रोशनियाँ झिलामिला रही हैं
छतों से लटके
लैम्पों में

हीरे जगमगा रहे हैं अन्धेरे में
नींद में डूबे
नदी के नील जल में
डुबकी लगा रहे हैं।

'''रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
</poem>
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